जनजातियों की सांस्कृतिक चेतना और भारतीय सिनेमा

अजय बोकिल

देर से ही सही, देश की तमाम जनजातियों, उनकी संस्कृति और गौरवशाली इतिहास को रजत पट पर अपेक्षित महत्व मिलने लगा है, हालांकि इस दिशा में अभी काफी कुछ किया जाना शेष है। जनजाति महानायक भगवान बिरसा मुण्डा के जन्मदिन को जनजातीय गौरव दिवस घोषित करने से इस देश में सदियों से रह रहे जनजाति, उनके अधिकार और प्रकृति संरक्षण में उनकी महत्वपुर्ण भूमिका पर हिन्दी सिनेमा ने भी गंभीरता से ध्यान देना शुरू किया है, वरना अभी तक उनका जीवन सेल्युलाइड की दुनिया में मुख्य रूप से लघु फिल्मों या वृत्तचित्रों तक ही सीमित था।

मध्यप्रदेश में मध्यप्रदेश माध्यम व जनजातीय संग्रहालय के तत्वावधान में कई लघु फिल्में बनी हैं। ये फिल्में जनजातियों के जीवन संस्कृति से तो परिचय कराती हैं, परन्तु उनकी संस्कृति सभ्यता और देश की मुख्य धारा में उनके बहुआयामी योगदान को बहुत कम बताती हैं। यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि जनजातियों की जनसंख्या इस देश की कुल जनसंख्या का (२०११ की जनगणना के अनुसार १० करोड़ ४२ लाख) ८.६ प्रतिशत हैं, किन्तु हिन्दी सिनेमा में उनका प्रतिनिधित्व कुछ जनजाति नृत्यों, धुनों या कभी कभार उपहासात्मक पात्र के रूप में ही है। उल्टे कई व्यावसायिक हिन्दी फिल्मों में तो उन्हें बहुत विचित्र और उपहासात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।

हिन्दी सिनेमा की फिल्मों में जनजाति चरित्र या नर्तक भी भारतीय जनजातियों के बजाए पश्चिम की निगाह से देखे गए अफ्रीकी जनजातियों से प्रेरित हैं। हिन्दी सिनेमा में जनजाति कलाकार, फिल्म निर्माता, निर्देशक भी नहीं के बराबर हैं। यहां तक कि जनजाति महानायकों पर भी फिल्में बनने का सिलसिला अब जाकर शुरू हुआ है।

मध्यप्रदेश के संदर्भ में यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि देश की सबसे बड़ी जनजातीय जनसख्यां मध्यप्रदेश में बसती हैं और जिसमें अलग-अलग रंग लिए करीब ४३ जनजातियां निवास करती हैं। इनमें भील जनजाति के महानायक (जिन्हें भारतीय रॉबिनहुड भी कहा जाता है) टण्ट्या मामा, वीरांगना रानी दुर्गावती, रानी कमलापति और गोंड शासक रघुनाथ शाह आदि शामिल हैं। इनमें से केवल टण्ट्या मामा पर फिल्म बनीं है।

पिछले वर्ष झारखण्ड ने फिल्म निर्माता निर्देशक अशोक शरण ने जनजाति क्रान्तिकारी भगवान बिरसा मुण्डा पर “उलगुलान: एक क्रान्ति कथा” नाम से फिचर फिल्म बनाई, जिसमें बिरसा मुण्डा द्वारा अंग्रेज सरकार और जमींदारी प्रथा के लिए जनजातियों के संघर्ष की गाथा चित्रित की गई है। इस फिल्म की काफी प्रशंसा हुई। वैसे बिरसा मुण्डा पर दो फीचर फिल्में और बन रही हैं। ये तमिल, तेलुगू के साथ हिन्दी में भी होगी। इन फिल्मों के निर्माण की घोषणा दक्षिण के फिल्मकार पी.ए. रञ्जीत ने तथा कौशिक रेड्डी ने की है।

हिन्दी सिनेमा की फिल्मों को भारतीय समाज का दर्पण माना जाता है, परन्तु यह दर्पण हमारे सम्पूर्ण समाज और उसके सभी घटकों को प्रतिबिम्बित नहीं करता। हिन्दी सिनेमा की मुख्य धारा केवल मध्यम व उच्चवर्गीय भारतीयों के आसपास बहती है और अक्सर यथार्थ से दूर ही होती है। सिने जगत में भारत में रहने वाली जनजातियों के जीवन और संस्कृति की उपेक्षा के तीन कारण दिखते हैं।

पहला तो जनजातियों का जंगलों में रहने के कारण लम्बे समय तक समाज की मुख्य धारा से दूर रहना। दूसरे, जनजाति संस्कृति में नाट्य विधा का अभाव और तीसरे जनजातियों की बाजार व्यवस्था में उनकी नगण्य भागीदारी। स्वतन्त्रता के बाद जनजातियों की नई पीढ़ी धीरे-धीरे मुख्य धारा में आ रही है। यह शिक्षा के प्रसार और रोजगार की आवश्यकता के कारण सम्भव हो रहा है।

जानकारों का कहना है कि जनजातियों का सांस्कृतिक वैभव उनके रीति रिवाजों के साथ-साथ नृत्य और गायन की परम्परा में निहित है, किन्तु समाज के दूसरे वर्गों या जातियों में लोक नाट्य की सुदीर्घ परम्परा है, वैसी जनजातियों में नहीं है। इसलिए अभिनय या स्वांग जैसा कुछ जनजाति संस्कृति में नहीं है। फिल्मकार अशोक शरण के अनुसार जनजातियों के बोलने में भी गीत है और चलने में भी नृत्य है।

नृत्य-संगीत उनके जीवन का हिस्सा हैं, परन्तु यदि नाट्य या अभिनय जनजातियों के जीवन का हिस्सा नहीं रहा है तो इसकी वजह शायद यह होगी कि जनजाति जीवन शैली और जीवन दर्शन सत्य की तरह सरल और निष्पाप है। उसमें किसी किस्म का दिखावा नहीं है, इसलिए अभिनय या स्वांग की भी कोई आवश्य कता नहीं उन्हें महसूस नहीं होती।

किन्तु अब समय बदल रहा है। जनजातियों का जीवन दर्शन, सोच, रीति-रिवाज, धार्मिक विश्वास, जीवन दर्शन और उनके महानायकों के अवदान को देश की मुख्य धारा ने स्वीकारना शुरू किया है। इसे निरन्तर आगे बढ़ना चाहिए।

हिन्दी सिनेमा में जनजाति समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाले लोग नहीं के बराबर थे, परन्तु जैसे-जैसे इस वर्ग में अपनी संस्कृति को लेकर चेतना बढ़ रही है, हिन्दी सिनेमा में भी इसका असर दिखने लगा है। वैसे देश का पहला जनजाति अभिनेता झारखण्ड के लूथर तिग्गा को माना जाता है।

लूथर ने जाने माने फिल्मकार ऋत्विक घटक की १९५८ में बनी क्लासिक फिल्म “अजांत्रिक” में झुरनी का किरदार निभाया था। यह अलग बात है कि लूथर तिग्गा को वैसा मान-सम्मान नहीं मिला, जिसके वो हकदार थे। एक इण्टरव्यू में लूथर तिग्गा ने बताया था कि उन्हें यह भूमिका बांग्ला और जनजातियों की स्थानीय कुडुख भाषा जानने के कारण मिली। तिग्गा को जनजाति संस्कृति की गहरी समझ थी। हालांकि पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते लूथर दा न तो कभी हिन्दी सिनेमा गए और न ही बंगाली सिनेमा। उन्होंने सरकारी नौकरी की और रिटायर हुए। लूथर का झारखण्ड के जनजातियों पर फीचर फिल्म बनाने का सपना अधूरा ही रह गया।

इस बीच झारखण्ड की “हो” जनजाति की युवा कलाकार मञ्जरी ने अभिनय के क्षेत्र में कदम रखा है। “हो” जनजाति के बारे में बाहरी दुनिया को बहुत कम जानकारी है। हो जनजाति ऑस्ट्रोएशियाटिक समुदाय की “हो” भाषा बोलते हैं और झारखण्ड में इस जनजाति की ब‹डी संख्या है। इनमें साक्षरता भी तेजी से बढ़ रही है। फिल्म जगत में अपनी पहचान बनाने के लिए हो कलाकारों ने “ऑल इंडिया हो फिल्म एसोसिएशन” का गठन किया है। हो युवाओं को सिने क्षेत्र में प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से झारखण्ड के लोहनागडी में एक मनेशनल हो शॉर्ट फिल्म फेस्टिवल का आयोजन भी किया गया था। हो समुदाय की मञ्जरी एमबीए तक शिक्षित है। उसने “सिकु हो” फिल्म में अभिनय किया है। उसके हो भाषा में ५० से अधिक एल्बम भी आ चुके हैं।

वैसे फुटकर तौर पर हिन्दी सिनेमा फिल्मों में जनजातियों और उनकी संस्कृति को प्रस्तुत किया गया है। कई बार वो फैंटेसी के रूप में अधिक दिखती है। मसलन एस.एस. राजामौली की ब्लॉक बस्टर फिल्म “बाहुबली” में वास्तव में दो जनजातियों के बीच खूनी प्रतिशोध का ड्रामा दिखाया गया था। कुछ लोगों ने इसकी आलोचना भी की। परन्तु दर्शकों ने इसकी भव्यता को बेहद पसंद किया। “शोले” के बाद “बाहुबली” उन कुछेक फिल्मों में रही, जिसके संवाद और पात्र लोगों में चर्चा का विषय बने।

वैसे भी हिन्दी सिनेमा फिल्मों में हमें जो जनजाति दिखाए जाते हैं, जिस तरह की उनकी संस्कृति दिखाई जाती है, उसका हकीकत से वास्ता लगभग नहीं होता। हिन्दी फिल्मों में अधिकतर उनकी भूमिका नाचने तक ही सीमित रहती है। जबकि जनजातियां पूरे भारत में फैले हैं और हर अञ्चल और क्षेत्र के जनजातियों की अपनी संस्कृति, सभ्यता और भाषा है। ये वो लोग हैं जो मानव सभ्यता के विकास की कहानी भी अपने साथ लिए चलते हैं। उनका प्रकृति प्रेम, उनकी समृद्ध आदिम संस्कृति, रीति रिवाज और विश्वासों को फिल्मों में बहुत कम ही दिखाया गया है। यह जनजाति समाज के साथ न्याय नहीं है।

हिन्दी सिनेमा फिल्मों में दिखाए गए अधिकतर जनजाति पात्र ब्रिटिश उपनिवेश काल के लेखक रूडयार्ड किपलिंग के चरित्रों से प्रेरित हैं, जैसे कि मोगली, जो वन्य प्राणियों के बीच पला-बढ़ा होता है और उन्हीं की तरह व्यवहार करता है। वास्तव में ये सदियों से वनों के रखवाले भी हैं, क्योंकि उनका जीवन जंगलों पर निर्भर है। जंगल ही नहीं रहेंगे तो वनवासी कैसे रहेंगे? फिल्म नागिन (१९५४) तथा मधुमती (१९५८) में जनजातियों को अति सरल और अवास्तविक चरित्र के रूप में दिखाया गया। वैसे जनजातियों को अंग्रेजी में ट्राइबल शब्द भी अंग्रेजों ने ही दिया। इसके पहले जनजाति उनके जनजातीय नाम से जाने जाते थे।

कुछ जनजाति समुदायों के मुख्य धारा के समुदायों के साथ रोटी-बेटी के रिश्ते भी थे। जनजातियों के नाच-गाने, जादू-टोने और विचित्र वेश-भूषा से हटकर देखें तो हिन्दी सिनेमा में कम ही फिल्में बनी हैं, जिनमें जनजाति को नायक के रूप में दिखाया गया है। सोहिनी चट्टोपाध्याय के अनुसार हाल के वर्षों में ऐसी चार प्रमुख हिन्दी फिल्में आई हैं। ये हैं थ्री ईडियट्स, रावण, वीर और मैरीकॉम।

थ्री ईडियट्स में आमिर खान ने लद्दाखी जनजाति फुंशुक वांगडू, रावण में अभिषेक बच्चन ने बीरा मुण्डा, वीर में सलमान खान ने पिण्डारी (हालांकि पिण्डारी को जनजाति कहना भी बहस का विषय है) और मैरीकॉम बायोपिक में प्रियंका चोपड़ा ने भारतीय महिला मुक्केबाज मैरीकॉम की भूमिका अभिनीत की थी। थ्री ईडियट्स में फुंशुक वांगडू का चरित्र लद्दाख के विख्यात समाज सेवी सोनम वांगचुक के व्यक्तित्व से प्रेरित था जबकि रावण में बीरा मुण्डा का चरित्र भगवान बिरसा मुण्डा से प्रेरित था। इसी तरह चक दे इंडिया में भारतीय महिला हॉकी टीम में दो वनवासी खिलाड़ियों मौली और मैरी जिमिचक को दिखाया गया था।

देवानन्द की फिल्म मये गुलिस्तां हमारा (१९७३) में शर्मिला टैगोर ने बतौर नायिका नागालैंड की आओ जनजाति की लड़की की भूमिका की थी। नृवंशविज्ञानी तथा फिल्म स्कॉलर विलियम एलिसन ने अपने शोध पत्र “जंगल लव: एक्स्पोजर एंड इरेजर इन हिन्दी सिनेमा” में बताया कि हिन्दी सिनेमा में जनजाति चरित्र बिरले ही मिलते हैं। पचास और साठ के दशक में जनजाति नृत्य और गीत जरूर हिन्दी मसाला फिल्मों का हिस्सा थे। नाच और गाने के अलावा जनजातियों के बारे में शायद ही कोई चर्चा होती थी।

कुछ वर्षों में स्थिति थोड़ी बदली है। हिन्दी सिनेमा फिल्मों में जनजाति चरित्रों को अपेक्षित महत्व न मिला हो, परन्तु कुछ फिल्मों में दलितों को महत्व मिलने लगा है। मराठी फिल्म सैराट तो दलित नायक और सवर्ण नायिका के त्रासदी भरी प्रेम कहानी थी, इसे दर्शकों ने खूब पसंद किया। यह हमारे सामाजिक मानस के बदलाव का संकेत भी है। वरना हिन्दी फिल्मों के चरित्र मुख्यत: उच्च जाति तथा मध्यमवर्ग केन्द्रित अधिक रहे हैं। पिछले कुछ सालों से जनजातियों को समाज की मुख्य धारा में लाने के बहुआयामी प्रयास हो रहे हैं। स्वयं जनजातियों में भी अपनी संस्कृति और पहचान के प्रति चेतना जागी है, परन्तु हिन्दी सिनेमा फिल्मों में उसका संज्ञान कम ही लिया गया है।

जनजातियों पर केन्द्रित हिन्दी सिनेमा की पहली फिल्म १९३६ में बनी “इज्जत” को माना जाता है। हालांकि इसमें इन्हें जंगली कौम के रूप में ही दर्शाया गया था। इसका निर्माण महान फिल्मकार बिमल राय ने तथा निर्देशन फ्रेंज ओस्टीन ने किया था। इसमें भील नायिका के रूप में देविका रानी ने बोल्ड भूमिका की थी। युवा भील का किरदार अशोक कुमार ने किया था।

इसी वर्ष एक फिल्म तूफानी टार्जन भी बनी थी, जो एक काल्पनिक जनजाति पात्र है। इसे होमी वाडिया ने बनाया था और फिल्म में मर्कटमानव (आधा वानर, आधा मनुष्य) की भूमिका बोम्मन श्रॉफ ने की थी। वैसे काल्पनिक पात्र टार्जन पर हिन्दी सिनेमा में सन १९३७ से लेकर २००० तक २२ फिल्में बन चुकी हैं। हालांकि टार्जन के इस चरित्र का जनजातियों के वास्तविक जिवन से शायद ही कोई सम्बन्ध हो। वह फंतासी अधिक है। यही स्थिति मोगली चरित्र की है। परन्तु ऐसे चरित्र जनजातियों के जीवन संघर्ष, उनकी मान्यताओं, संस्कृति और मानव सभ्यता के विकास में उनकी अहम भूमिका को कहीं भी प्रतिबिम्बित नहीं करते।

यहां यह बात उल्लेखनीय है कि चरित्रों की केन्द्रिकता की दृष्टि से जनजाति समाज की फिल्मों में अधिक महत्व न मिला हो, परन्तु फिल्मी संगीतकारों ने जनजाति संगीत और धुनों को व्यापकता प्रदान करने और लोकप्रिय बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है। मोटे तौर पर इसकी शुरुआत “नागिन” के अमर गीत मन डोले मेरा तन डोले.. से मानी जा सकती है। इसके संगीतकार हेमंत कुमार के निर्देशन में स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने गाया था। इसी तरह “मधुमती” में जनजाति गीत बिछुआ जनजाति संगीत का एक बेहतरीन उदाहरण है। मधुमती में वैजयन्ती माला ने नायिका के रूप में एक जनजाति कन्या की प्रभावी भूमिका निभाई थी। फिल्म सत्यम् शिवम् सुंदरम् में जीनत अमान ने एक जनजाति लड़की की भूमिका की थी।

तमिल टीवी फिल्म “वनमागन” जातिभेद पर आधारित थी। राज कपूर की श्री ४२० में भी रमैया वस्तावैया गीत वास्तव में जनजाति नृत्य ही था। कुछ फिल्मों में हमें जनजाति के रूप में बंजारा या बंजारन के चरित्र देखने को मिलते हैं। हालांकि इनका जो चित्रण परदे पर किया जाता है, वो बंजारों के वास्तविक जिवन से बहुत दूर होता है। दिलीप कुमार की एक फिल्म में मध्यप्रदेश के गोंड समुदाय का गोडी नृत्य फिल्माया गया था, जिसमें गोंड जनजाति कला मर्मज्ञ शेख गुलाब की बड़ी भूमिका थी। शेख यूं तो पेशे से शिक्षक थे, परन्तु कहा जाता है कि उन्होंने ही सबसे पहले गोंडवानी, पंडवानी और रामायणी की पांडुलिपि तैयार की। इसके पहले वो केवल वाचिक परम्परा में थी।

हिन्दी सिनेमा में जनजाति संस्कृति अधिक न झलकने का एक कारण यह भी है कि सिनेमा भले ही अपने आप में एक आधुनिक कला और कलाओं का संगम हो, परन्तु मुख्य रूप से वह बाजार की प्रवृत्तियों से संचालित होती है, खासकर व्यावसायिक सिनेमा। अधिकतर फिल्में अपने दर्शक वर्ग को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं। ऐसा कोई जनजाति दर्शक वर्ग तैयार नहीं हुआ है, जिनके जीवन और जिनकी पसंद और अपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुए फिल्में बने। हालांकि इस स्थिति में भी धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है, परन्तु उसकी गति धीमी है।

हालांकि अब नए फिल्मकारों का ध्यान इस ओर जाने लगा है। जनजाति संस्कृति में लोक कला के साथ साथ जनश्रुतियों का भी खजाना है, जिस पर काम नहीं के बराबर हुआ है। ये जन श्रुतियां केवल पराशक्तियों के बारे में ही नहीं है बल्कि जंगलों को भगवान के समान मानने और उनके किसी भी कीमत पर संरक्षण करने को लेकर हैं। ये जनश्रुतियां लिखित रूप में उपलब्ध भले न हो परन्तु पीढ़ी दर पीढ़ी वाचिक परम्परा में जीवित रहती आई हैं।

इन पर फीचर फिल्में या फिर शॉर्ट फिल्में बन सकती हैं। इस तरह की शॉर्ट फिल्में बनाने वालों में झारखण्ड के सेराल मुर्मू उभरते जनजाति फिल्म उद्योग में जाना पहचाना नाम है। मुर्मू ने फिल्म्स प्रभाग के लिए कई फिल्में बनाई हैं। २०१९ में उन्होंने संथाली भाषा की फिल्म सोनधायनी बनाई, जिसे ढाका अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में प्रदर्शित किया गया था। इसके लिए उन्हें बेस्ट स्क्रिप्ट अवॉर्ड भी मिला था। यह फिल्म नक्सल आन्दोलन के कारण स्थानीय जनजातियों के समक्ष उत्पन्न सामाजिक समस्याओं पर केन्द्रित है। एक इण्टरव्यू में मुर्मू ने कहा था कि जिस तरह हिन्दी सिनेमा फिल्मों में जनजातियों का चित्रण किया जाता रहा है, उससे वो बहुत असंतुष्ट है। मसलन धर्मेन्द्र अभिनीत शालीमार में जिस तरह से झिंगालाला टाइप जनजाति नर्तक दिखाए गए, उसका भारतीय जनजातियों के जीवन से कोई सम्बन्ध ही नहीं था। मुर्मू की फिल्म कंपनी “अखरा” अब तक जनजातियों के जीवन पर केन्द्रित ३० से अधिक वृत्तचित्र बना चुकी हैं। मुर्मू फिल्मों को मनोरञ्जन का ही नहीं, शिक्षा का भी प्रभावी साधन मानते हैं।

टी.वी. पत्रकार इसरार अहमद की चर्चित फिल्म “न्यूटन” में छत्तीसगढ़ के २५ जनजाति कलाकारों ने काम किया था। इनमें से अधिकांश ऐसे थे, जिन्होंने जीवन में पहली बार थियेटर में जाकर बडे़ पर्दे पर कोई फिल्म देखी थी। यह फिल्म “सल्वा जुडुम” पर केन्द्रित थी। उलगुलान: एक क्रान्ति कथा में भी कई स्थानीय जनजाति कलाकारों ने अभिनय किया है।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि जनजातियों में भले नाट्य परम्परा नहीं रही हो, परन्तु विमुक्त और कथित जरायमपेशा जनजातियों में से एक पश्चिम बंगाल की “छारा” जनजाति ने बुधान थियेटर का विकास किया है। जाने-माने फिल्मकार दाक्षिण कुमार बजरंगे ने एक लेख में बताया था कि ये बुधान थियेटर ग्रुप अंग्रेजी सत्ता के दमन के खिलाफ कथित घुमक्कड़ और जरायमपेशा जनजातियों के संवैधानिक अधिकारों के संघर्ष को प्रस्तुत करता है। यह छारा जनजाति को अंग्रेजों ने १८७१ में जन्मजात अपराधी जमात घोषित कर दिया था जबकि छारा समुदाय के लोग खुद को जन्मजात अभिनेता मानते हैं। अंग्रेजों के खिलाफ उनके संघर्ष को स्वतन्त्रता के बाद स्वतंत्रता संघर्ष के रूप में मान्यता मिली।

एक और अहम बात यह है कि स्वतन्त्रता के बाद जनजाति समाज भी अब मुख्य धारा में शामिल होता जा रहा है। जनजाति बच्चे पढ़ लिख रहे हैं। उनके सामाजिक सोच और रीति रिवाजों में भी परिवर्तन आ रहा है साथ ही अपनी संस्कृति को लेकर चेतना भी बढ़ रही है। हिन्दी सिनेमा फिल्मों में इसको भी गम्भीरता से नोटिस किया जाना चाहिए।