फिल्म शुरू होती है तो नैरेशन आता है- ‘इतिहास गवाह है कि चंद विभीषणों और जयचंदों की वजह से हम लोग गुलाम बनते आए हैं।’ आप हैरान होते हैं कि कैसे देश के साथ गद्दारी करने वाले मीर जाफर के साथ पहले वामपन्थी इकोसिस्टम (जिसमें बॉलीवुड भी शामिल है) ने जयचंद का नाम जोड़कर उसे स्थापित भी कर दिया और अब चुपके से मीर जाफर का नाम हटाकर विभीषण का नाम जोड़कर नया नरेटिव गढ़ा जा रहा है।
प्रश्न उठता है कि विभीषण के कारण कब और कौन गुलाम बना? विभीषण तो नायक (राम) का मित्र था जिसने खलनायक (रावण) को मरवाने में मदद करके धरती से पाप और असत्य के राज्य का खात्मा करवाया था। खैर…!
पहले कहानी सुन लीजिए। अंग्रेजों और उनके पिठ्ठू दारोगा ने शमशेरा के कबीले को बंदी बना लिया और शमशेरा को मार दिया। बरसों बाद उसी शमशेरा के बेटे ने अपने कबीले को आजादी दिलवाई और पिता की मौत का बदला भी लिया।
अब जरा कहानी के भीतर झांक कर देखिए कि आखिर ये लोग क्या कहना चाह रहे हैं और किस तरह से कहना चाह रहे हैं। 1871 के भारत का एक काल्पनिक शहर है काजा जहां सारे ‘ऊंची जाति’ के लोग अमीर, संपन्न, सुखी, खुशहाल मजे से रह रहे हैं। अंग्रेजी हुकूमत है लेकिन कहीं कोई अत्याचार, कोई दिक्कत, कोई आजादी की सुगबुगाहट तक नहीं। हर तरफ रामराज्य है। 14 साल पहले 1857 में इसी देश में हुई क्रांति की कहीं कोई चर्चा तक नहीं है। बस ये लोग परेशान हैं तो खमीरन नाम के ‘नीची जाति’ के उन लोगों से जिन्हें इन्होंने बस्तियों से दूर जंगलों में रहने को भेज दिया था। ये खमीरन लोग इन अमीरन लोगों को लूटते हैं, डाके डालते हैं, इनका पैसा, सोना ले जाते हैं लेकिन पता नहीं उसका क्या इस्तेमाल करते हैं क्योंकि रहते तो ये लोग एकदम गंदे, बिना नहाए, फटे-पुराने कपड़ों में हैं। अब ये सारे अमीर लोग अंग्रेजों से कहते हैं कि ये लो 50 किलो सोना और हमें इन खमीरन के जुल्म से आजादी दिलाओ। अंग्रेजों का नौकर दारोगा शुद्ध सिंह इन दो-ढाई सौ लोगों को पकड़ कर काजा के किले में कैद कर देता है जहां से भागने की कोशिश में शमशेरा मारा जाता है। अब हैरानी यह है कि 25 साल बीत जाते हैं और सिर्फ इस काजा के किले को छोड़ कर हर तरफ फिर से सुकून, शांति, सुख-चैन की वर्षा हो रही है। अंग्रेज और हिन्दुस्तानी मिल कर रह रहे हैं। बस, काजा के इस किले में इन दो-ढाई सौ लोगों को बेड़ियों से बांध कर पता नहीं क्यों, इन पर अत्याचार किए जा रहे हैं। एक दिन शमशेरा का बेटा यहां से भाग कर अपना गिरोह बना कर इन्हें आजाद कराने वापस आता है।
कहानी यही बताती है कि आजादी की कसक सिर्फ इन नीची जाति वाले खमीरन लोगों को ही है। और इन्हें भी बस, उस किले से आजाद होना है, देश-वेश को आजाद कराने की इन्हें भी नहीं पड़ी। काजा के करीब नगीना नाम का एक कस्बा है जो मंदिरों का शहर है लेकिन लोग यहां अपने पाप छुपाने आते हैं क्योंकि धर्म से बड़ा कोई मुखौटा है ही नहीं-फिल्म यह भी कहती है।
इतिहास में कल्पनाओं का छौंक लगा कर उम्दा कहानियां बनती रही हैं। मनोज कुमार वाली ‘क्रांति’ और आमिर खान वाली ‘लगान’ इसकी उन्नत मिसाल हैं। लेकिन यशराज फिल्म्स तो जैसे बर्बादी लाने पर तुला है। पहले इन लोगों ने ‘ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान’ से दर्शकों को ठगा जो आसानी से ‘कन्फेशन्स ऑफ ए ठग’ नामक उपन्यास पर आधारित हो सकती थी, लेकिन हुई नहीं। अब इस फिल्म में 1871 का साल दिखा कर ये लोग आपराधिक जनजाति अधिनियम के नाम पर ठग रहे हैं जिसे अंग्रेजी सरकार ने उसी साल लागू करते हुए देश की कई जनजातियों को ‘अपराधी’ घोषित कर दिया था। फिल्म के शमशेरा का स्टाइल सुल्ताना डाकू वाला है जो बीसवीं सदी के दूसरे दशक में सक्रिय था लेकिन यह फिल्म जिम कॉर्बेट की किताब ‘माई इंडिया’ के उस अध्याय ‘सुल्ताना-इंडियाज़ रॉबिनहुड’ पर भी आधारित नहीं निकली। कल्पनाओं का ऐसा भी छौंक क्या लगाना कि आप इतिहास को ही गायब कर दें।
अपने तेवर से ‘क्रांति’ और अपने कलेवर से ‘बाहुबली’ व ‘के.जी.एफ.’ लगती यह फिल्म अपने फ्लेवर से ‘ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान’ हो जाती है जिसमें कभी भी, कुछ भी, कहीं भी हो रहा है और इधर थिएटर में बैठे दर्शक उससे जुड़ाव ही महसूस नहीं कर पा रहे हैं। न खमीरन पर हो रहे अत्याचार हमें दहलाते हैं, न उनकी बगावत हमें उकसाती है। फिल्म के भीतर ऑफसैट प्रैस से छपे सुंदर हिन्दी में लिखे बैनर दिखते हैं लेकिन फिल्म की लेखिका खिला बिष्ट का नाम पर्दे पर खिला बीस्ट लिखा हुआ आता है। हिन्दी की गलतियां तो बहुतेरी जगह हैं। कहीं शब्दों की तो कहीं वाक्यों की भी। अब बेचारे निर्देशक करण मल्होत्रा हर तरफ तो पैनी नजर नहीं रख सकते थे न!
रणबीर कपूर बहुत मेहनत करते हैं। उनकी मेहनत दिखती भी है। संजय दत्त ने खलनायक के रोल में जान फूंकी है। रोनित रॉय, इरावती हर्षे व अन्य कलाकार सही रहे। सौरभ शुक्ला अपने अभिनय और संवाद अदायगी से बेहद प्रभावी रहे। फिल्म की नायिका वाणी कपूर के बस ग्लैमरस लुक को ही दिखाया गया। फिल्म में गाने बहुत सारे हैं। इतने सारे कि थोड़े ही समय में ये खिजाने लगते हैं। हां, इसके सैट, कम्प्यूटर ग्राफिक्स, कैमरावर्क, एक्शन आदि सब भव्य है। लेकिन उस भव्यता का क्या लाभ जो एक कमजोर कहानी के इर्दगिर्द रची जाए और उसे सहारा तक न दे पाए। संसाधनों की भव्य बर्बादी है यह फिल्म।
साभार: cineyatra.com