भारत में वृत्तचित्र की यात्रा

आशीष भवालकर

चलचित्र के आविष्कार से उत्साहित होकर रचनात्मक व्यक्तियों नें विविध कलाओं के अवयवों और मुख्य रूप से कथा प्रस्तुतिकरण की एक सशक्त विधा नाटक के तत्वों के सम्मिश्रण से एक नया अवतार प्रस्तुत किया जिसे हम सिनेमा के नाम से जानते हैं, जिसने परम्परिक किस्सागोई के स्वरूप को आमूलचूल बदलकर जनमानस को तीव्र रूप में उद्वेलित किया। किन्तु यहां यह ध्यान देना आवश्यक है कि काल्पनिक घटनाओं और व्यक्तियों पर आश्रित सिनेमा के आकार लेने के पूर्व स्वाभाविक रूप से जो प्रथम शैली प्रकट हुई वह वृत्तचित्र थी, जिसमें किसी एक वास्तविक घटना का ज्यों का त्यों प्रस्तुतिकरण था। यह शैली हमारे सामने प्रारम्भ से ही थी किन्तु वृत्तचित्र शब्द के रूप में नामकरण १९२० के दशक तक नहीं हो सका था। इसे वैश्विक अकादमिक जगत में नाम और औपचारिक प्रतिष्ठा दिलाने में प्रयास किया ब्रिटिश डॉक्ङ्मूमेंट्री मूवमेंट के संस्थापक जॉन ग्रियर्सन ने और इसे “वास्तविकता का रचनात्मक प्रस्तुतिकरण” के रूप में परिभाषित किया।

प्रथम वृत्तचित्रों का प्रदर्शन

जब विश्व में पहली बार चलचित्र का प्रदर्शन हो तो उसमें भारत का नाम भी आना ही चाहिए ऐसा अद्भुत संयोग हमारे भाग्य में था। फ्रांस के ल्यूमियेर बंधुओं ने “सिनेमेटोग्राफ” का आविष्कार किया और उससे तैयार किए गए १० लघु चलचित्रों को २८ दिसंबर, १८९५ को पेरिस के बुलेवर्ड डेस क्यूकिन्स के पास ग्रांड कैफे के तहखाने के एक बड़े कमरे में प्रदर्शित किया जिसका नाम था “सैलून इंडियन”। सामान्य दिवस की सामान्य गतिविधियों को ही ल्यूमियेर बंधुओं ने प्रदर्शित किया था। जैसे फैक्ट्री से घर जाते मजदूर, बगीचे में पौधों को सींचते माली आदि। किन्तु ये चलचित्र किसी आश्चर्य की तरह थे क्योंकि लोगों ने पहली बार चलते-फिरते चित्रों को देखा और पहली बार बीते हुए पलों को अपनी आंखों के सामने पुनः जीवंत देखा था। इन्हीं चलचित्रों में से एक “एराइवल ऑफ ट्रेन” के प्रदर्शन के दौरान दर्शकों को लगा कि ट्रेन होटल के अंदर चली आई है जिससे भयभीत होकर कुछ लोग तो बाहर की ओर भागने लगे।

भारत में वृत्तचित्र का समृद्ध इतिहास

व्यापारिक वर्चस्व की दृष्टि से ल्यूमियेर बंधुओं ने अपने आविष्कार से विश्व को आकर्षित करते हुए शीघ्रता से पूरी विश्व में पहुंचाने का भी प्रयत्न भी किया। उन्होंने अपने तकनीशियन मॉरिस सेस्टियर के जरिए ऑस्ट्रेलिया के लिए फिल्म पैकेज रवाना किया। मॉरिस को बंबई (अब मुंबई) आने पर पता चला कि ऑस्ट्रेलिया जाने वाले हवाई जहाज में खराबी के चलते उन्हें कुछ दिन ठहरना होगा। मॉरिस के मन में विचार आया कि जो काम ऑस्ट्रेलिया जाकर करना है, उसे बंबई में भी किया जा सकता है। अतः वह ६ जुलाई, १८९६ को अगले दिन के लिए एक विज्ञापन छपवाने टाइम्स ऑफ इंडिया के कार्यालय गया। “दुनिया का अजूबा” नाम से प्रचारित इस विज्ञापन को प‹ढकर बंबई के कोने-कोने से दर्शकों का हुजूम वॉटसन होटल के लिए उम‹ड प‹डा। एक रुपए की प्रवेश दर से लगभग २०० दर्शकों ने ७ जुलाई, १८९६ की शाम २०वीं सदी के इस चमत्कार से साक्षात्कार किया। सिनेमा इतिहासकार समय ताम्रकार लिखते हैं : वॉटसन होटल में ७ से १३ जुलाई, १८९६ तक फिल्मों के लगातार प्रदर्शन होते रहे। बाद में इस प्रदर्शन को १४ जुलाई से बंबई के नौवेल्टी थिएटर में शिफ्ट कर दिया गया, जहां ये १५ अगस्त, १८९६ तक लगातार चलते रहे।

हरिश्चंद्र सखाराम भाटवडेकर उपाख्य सावेदादा (१८६८ – १९५८)

वॉटसन होटल में आयोजित लघु फिल्मों के प्रदर्शन में बंबई में १८८० से अपना फोटो स्टूडियो संचालित कर रहे १५ वर्ष का अनुभव लिए छायाकार हरिश्चंद्र सखाराम भाटवडेकर जो सावेदादा के नाम से प्रसिद्ध थे, शामिल थे। वे इस अद्भुत कला माध्यम के बारे में बहुत उत्सुक हो गए। उन्होंने सन् १८९८ में इंग्लैंड के रिले भाइयों से २१ गिनी की कीमत का एक कैमरा यानी सिनेमेटोग्रा़फ खरीदा और स्थानीय दृश्ङ्मों को फिल्माने लगे। सावेदादा ने मुंबई के प्रसिद्ध हैंगिंग-गार्डन में उस समय के दो विख्यात पहलवानों पुंडलीक दादा और कृष्णा न्हावी के बीच हुए कुश्ती की स्पर्धा को फिल्माया और इस चलचित्र को “द रेसलर” के नाम से प्रदर्शित किया। यह भारतीय चलचित्र के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना थी क्योंकि इसे ही किसी भारतीय द्वारा निर्मित पहला वृतचित्र माना जाता है। उनकी दूसरी फिल्म सर्कस के बंदरों की ट्रैनिंग पर आधारित थी और इसे नाम दिया गया था “अ मैन एंड हिज मंकीज”। इन दोनों फिल्मों को उन्होंने डिवेलपिंग के लिए लंदन भेजा। सन् १८९९ में विदेशी फिल्मों के साथ जोड़कर उनका प्रदर्शन किया। इस प्रकार सावेदादा पहले भारतीय हैं जिन्होंने अपने बुद्धि कौशल से स्वदेशी लघु फिल्मों का निर्माण कर प्रथम निर्माता-निर्देशक तथा प्रदर्शक होने का श्रेय प्राप्त किया।

सावेदादा की रचनात्मकता का सिलसिला यहां आकर ठहरता नहीं है। वे इतिहास तो नहीं लिख रहे थे, लेकिन इतिहास उनके पीछे-पीछे जरूर चल रहा था। दिसम्बर १९०१ में, गणित में विशेष योगदान के लिए कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय द्वारा भारतीय छात्र रघुनाथ पुरुषोत्तम परांजपे को “रैंगलर” उपाधि से सम्मानित किया गया था। उनके कैम्ब्रिज से भारत वापसी पर भव्य स्वागत को फिल्माते हुए सावेदादा ने भारत को “रिटर्न ऑफ रैंगलर परांजपे” फिल्म दी जिसे भारत की पहली न्यूज रील माना जाता है। अगले ही वर्ष १९०२ में दिल्ली दरबार में एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक के हर्ष का फिल्मांकन करते हुए हरिश्चन्द्र सखाराम भाटवडेकर उपाख्य सावेदादा ने भारतीय डाक्यूमेंट्री शैली फिल्म की आधारशिला रखी। भाटवडेकर को हमेशा भारत के अग्रणी और प्रथम वृत्तचित्र फिल्म निर्माता के रूप में याद किया जाएगा।

हीरालाल सेन (१८६८ – १९१७)

ठीक इन्हीं दिनों १८९८ में, पेरिस की एक फिल्म मंडली ने कलकत्ता के स्टार थिएटर में एक ओपेरा स्टेज शो, “द फ्लावर ऑफ पर्शिया” के साथ प्रोफेसर स्टीवेन्सन की लघु फिल्म दिखाई। इस पूरे आयोजन में हीरालाल सेन के उत्साह एवं तकनीकी कौशल से प्रभावित होकर प्रोफेसर स्टीवेन्सन ने उन्हें अपने साथ शामिल कर लिया। स्टीवेन्सन के प्रोत्साहन और उनके कैमरे से हीरालाल सेन ने “द फ्लावर ऑफ पर्शिया” के दृश्यों पर आधारित अपनी पहली फिल्म “द डांसिंग सीन” बनाई।

उनके कॅरियर की सबसे लंबी फिल्म, अलीबाबा एंड द फोर्टी थीव्स (१९०३) थी जो एक मूल क्लासिक थिएटर के मंचन पर आधारित थी। किन्तु सेन केवल नाटकों पर फिल्में बनाकर संतुष्ट नहीं थे। १९०४ में, उन्होंने बंगाल के विभाजन के विरोध में एक सार्वजनिक रैली की विशालता को सेलुलॉइड पर उतारने का निर्णय किया। कोलकाता के टाउन हॉल में २२ सितंबर, १९०५ को स्वदेशी के प्रचार के लिए और बंगाल के विभाजन के विरुद्ध एक जोरदार प्रदर्शन हुआ। इसे हीरालाल सेन ने फिल्मांकित करके एक डॉक्ङ्मूमेंट्री फिल्म बनाई। कोषागार भवन के ऊपर लगे एक कैमरे का उपयोग करते हुए, वह प्रदर्शनकारियों के समुद्र की पृष्ठभूमि में प्रख्यात वक्ताओं जैसे इंडियन नेशनल एसोसिएशन के संस्थापक सुरेंद्रनाथ बनर्जी सहित अन्य स्वतंत्रता सेनानियों को फिल्माने में सक्षम थे।

अब तक छोटी-मोटी घटनाओं का एवं थिएटर के मंचन का फिल्मांकन तो हो रहा था पर मौलिक कथाचित्र बनाने की कोई कोशिश नहीं की गई थी। किन्तु यह एक शोध का स्वतंत्र विषय हो सकता कि विश्व के अधिकांश देशों में “न्यूज-रील” या डॉक्यूमेंट्री शैली के प्रारंभ की तिथि को सिनेमा का श्रीगणेश माना गया किन्तु भारत में कथाचित्र प्रारम्भ की तिथि को सिनेमा का शुभारम्भ माना गया।

धुंडिराज गोविन्द फाल्के (१८७०-१९४४)

धुंडिराज गोविन्द फाल्के उपाख्य दादासाहेब फाल्के ने जब “लाइफ ऑ़फ क्राइस्ट” देखी तो उन्हें लगा कि हम कब अपने भारतीय बिम्ब परदे पर देखेंगे। वे इस बात से चिन्तित हुए कि, ये विदेशी कल्पनाएं हमारी सांस्कृतिक चेतना को धीरे-धीरे नष्ट कर देंगी। फाल्के १९१२ में उपकरण खरीदने के लिए लन्दन गए। साथ ही फ्रांस, जर्मनी और संयुक्त राज्य अमेरिका से फिल्म निर्माण और प्रदर्शन के लिए आवश्यक उपकरण तत्कालीन ह्यूटन बुचर, जीस टेसर और पाथे सहित निर्माताओं से आयात किये। इसमें कैमरा, निगेटिव और पाजिटिव फिल्म स्टॉक, संपादन मशीन और फिल्म प्रोजेक्टर शामिल थे। कैबाउर्न ने विलियमसन कैमरा, एक फिल्म परफोरेटर, प्रोसेसिंग और प्रिंटिंग मशीन जैसे यंत्रों तथा कच्चा माल का चुनाव करने में मदद की। इंग्लैंड की यात्रा के दौरान ब्रिटिश फिल्म उद्योग के संस्थापकों में से एक सेसिल हेपवर्थ से फिल्म निर्माण का शिल्प सीखने का अवसर उन्हें प्राप्त हुआ। विश्व सिनेमा के दिग्गजों के साथ भारतीय रचनाकारों का सम्पर्क से सुखद परिणाम सामने आए।

अंग्रेजी में एक मुहावरा है – ‘द डेविल इज इन द डीटेल्स’ अर्थात बारीक जानकारी में ब‹डी बात छुपी होती है। उन्होंने एक पूर्ण फीचर फिल्म बनाने से पहले एक लघु फिल्म जिसका मराठी शीर्षक था ‘अंकुराची वाढ’ बनाई, जिसने मटर के पौधे की प्रगति को पकड़ने के लिए स्टॉप-मोशन फोटोग्राफी का प्रयोग किया। वास्तव में यह भी डॉक्यूमेंट्री शैली की ही प्रारम्भिक फिल्म थी। उन्होंने १९१७ में एक वृत्तचित्र “चित्रपट कसे तयार करतात” (फिल्में कैसे बनती हैं) भी बनाई, जिसमें उन्होंने खुद को कलाकारों का निर्देशन, शूटिंग और एक फिल्म का संपादन करते हुए दिखाया। वह फिल्मों के उपयोग से लोगों के जीवन के प्रति दृष्टिकोण को आकार देने और शैक्षिक उद्देश्यों के लिए चलचित्रों की क्षमता को देखने का आग्रह करने वाले प्रारम्भिक लोगों में से एक थे।

फिल्म प्रभाग (फिल्म्स डिवीजन) का योगदान

परतंत्र भारत में १९४३ में स्थापित ‘इंडियन न्यूज परेड’ तथा ‘इनफार्मेशन फिल्म्स ऑफ इंडिया’ को जनवरी, १९४८ में फिल्म प्रभाग का नया नाम दिया गया। साथ ही सिनेमेटोग्राफ अधिनियम, १९१८ का १९५२ में भारतीयकरण किया गया जिसके अन्तर्गत वृत्तचित्र फिल्मों का पूरे देश में प्रदर्शन करना अनिवार्य कर दिया गया। फिल्म प्रभाग समाचार, वृतचित्र और ग्रामीण दर्शकों के लिए प्रादेशिक भाषाओं में लघु कथा चित्र बनाता था। प्रारंभ में १६ मि.मी. फॉर्मेट से प्रारम्भ हुआ निर्माण कार्य अब डिजिटल फॉर्मेट पर भी निर्बाध जारी है।

एक बहुप्रतीक्षित कार्य भी मूर्तरूप में सामने आया जब १२ जुलाई, २०१९ को फिल्म प्रभाग परिसर-मुम्बई में वृत्तचित्र फिल्म क्लब ‘क्षितिज’ का शुभारम्भ किया गया। सराहनीय वृत्तचित्रों का अब सार्वजनिक प्रदर्शन किया जा रहा है और वृत्तचित्र प्रेमियों को इसे देखने के साथ ही साथ उनके निर्देशकों के साथ बातचीत करने का अवसर भी प्राप्त हो रहा है। वृत्तचित्रों का सार्वजनिक प्रदर्शन हर महीने के दूसरे और चौथे शुक्रवार को शाम पांच बजे से सा‹ढे छह बजे तक फिल्म प्रभाग परिसर में किया जाता है।

 

साभार: चित्र जगत भारत बोध