दारिउश मेहरजुई के निर्देशन में बनी फिल्म “द काउ” में इजातोल्ला इंतेजामी ने मुख्य भूमिका निभाई है। ईरान के तब के शासक अयातोल्ला खोमैनी को यह फिल्म इतनी अच्छी लगी कि इस फिल्म को देखने के बाद उन्होंने ईरान में गो हत्या पर प्रतिबन्ध लगा दिया जो आज तक लागू है।
मनोविज्ञान में एक शाखा है बोनथ्रोपी। इसमें व्यक्ति स्वयं को पशु समझने लगता है। पश्चिम में आज भी यह समझ पाना पहेली है कि कोई कैसे अपनी गाय से इतना प्यार कर सकता है कि वह स्वयं पशु समान आचरण करने लगे, जबकि भारत में एक किसान भी मनोविश्लेषकों से अधिक अच्छे से यह बात समझ सकता है।
प्रत्येक भारतीय को यह फिल्म देखनी चाहिए। फिल्म में मश्त हसन अपनी गाय से प्रेम करता है। किसी बीमारी से गाय जब मर जाती है तब वह स्वयं को गाय समझने लगता है। नाद में चारा खाता है, गले में घण्टी बांधता है और अपने गले में रस्सी डालकर उसी खूंटे से अपने को बांध लेता है और वहीं थान में बैठा रहता है। गाँव वाले सोचते हैं कि यह पागल हो गया है और उपचार कराने के लिए रस्सियों में बांधकर शहर लेकर जाने लगते हैं। मश्त हसन वहाँ उस टीले पर जाकर अड जाता है जहां जाकर उसकी गाय रुक जाती थी। लोग उसे खींचते हैं किन्तु वह अडा रहता है। तभी एक आदमी डंडे से उसे पीटने लगता है और चिल्लाने लगता है, पशु कहीं का… पशु कहीं का.!
उस समय पीडा से न कराहकर मश्त हसन आनन्द से अपनी आंखें मूंद लेता है। वह सोचता है कि अहा! अब जाकर मैं अपनी गाय से एकाकार हो पाया हूँ। अब मैं अपनी गाय बन गया हूँ। रम्भाकर दौड पडता है और एक तालाब में गिरकर मर जाता है।
हमारा इतिहास बताता है कि जब गाय चलती तो श्रीराम के पूर्वज राजा दिलीप चलते थे। वह खाती तो वे खाते थे, वह बैठती तो बैठते, इतने ही एकाकार हो गए थे, गाय ही बन गए थे बिल्कुल, ऐसे जैसे मश्त हसन। सत्यकाम जब वापस आया तो गुरुकुल के ब्रह्मचारियों ने गुरु से कहा, हमने गिनती कर ली है। पूरी हजार गऊ हैं। तब गुरु ने कहा था कि हजार नहीं एक हजार एक गऊ हैं। सत्यकाम की आंखों को तो देखो जरा ध्यान से, यह भी गाय ही बन गया है।
पश्चिम में भले ही इसे बोनथ्रोपी में वर्णित कोई रोग मानें किन्तु भारत में चेतना के विकास क्रम में यह बहुत ऊंचा पायदान है। उपनिषद में इसका प्रमाण है। आज भी गाँव-देहात में पशुओं से बात करते उनके हाव-भाव समझते लाखों लोग मिल जाएंगे।
साभार: चित्र जगत भारत बोध