परदे से गायब इतिहास का सच

विजय मनोहर तिवारी

रंग और रोशनी से परदे की पहचान पुरानी है। कैमरा जानता है कि आसमान में बिखरी रंगीन रोशनी के साथ रात की स्याही का कितना अनुपात एक दर्शक के मन में गहरी पीड़ा अंकित कर देगा। पृष्ठभूमि में गूंजने के लिए एक धुन को सदैव यह संज्ञान है कि वह किन वाद्यंत्रों से बहकर उतरेगी और आंखों में आंसू बनकर छलक उठेगी या एक मुस्कान बनकर ठहर जाएगी। शब्दों को गीतों और संवादों में अपने प्रभाव का अंदाजा है और वे यह भी जानते हैं कि कब उन्हें परदे के पीछे खामोशी में छिप जाना है ताकि परदे पर पसरी खामोशी वह कह सके, जो उसके बूते में भी नहीं। सब तरह की आवाजों को भी अपनी औकात पता है। रचना प्रक्रिया में कैंची एक ऐसी छैनी है जो शिला में से शिल्प उघाड़ देती है। आज की उन्नत तकनीक ने सिनेमा की शक्ति को अपरंपार बना दिया है। अब परदे पर हर संभव कल्पना अपने पूर्ण प्रभाव में ही जोर से उतरती है और वह सब जो कल्पनातीत ही है। स्टूडियो में ब्रह्मांड समाया है। सिनेमा के ऋषि जो सिद्धि चाहें चित्रपट पर उतार सकते हैं। समस्त प्रकार की छवियों में जैसे अभिशाप और वरदान उनके कैमरा-कमंडल में समाए हुए हैं। अब इस लय में यह अमूर्त सिनेमाई चर्चा लंबी चल सकती है मगर मैं चित्रभारती के उत्सव प्रसंग में भोपाल लौटूंगा। एक दर्शक के रूप में मेरा पहला प्रश्न होगा कि भारतीय सिनेमा के मनीषी इस तकनीक प्रदत्त वरदान का करते क्या रहे हैं? खासकर भारत के संदर्भ में।

भारत में अंधेरे सिनेमाहॉल के भीतर सफेद परदे पर चित्रों की चलाफिरी को सौ साल हो गए और हर साल एक हजार से अधिक फिल्में परदे पर उतरती हैं। भारत में सिनेमा यात्रा को सौ वर्ष हो गए और अब प्रति वर्ष एक हजार से अधिक फिल्में परदे पर उतरती हैं। हम दशकवार बहुत विस्तार से यह बता सकते हैं कि चलचित्रों की यह यात्रा कैसी रही। अंग्रेजों के रहते कैसी फिल्में बनीं, अंग्रेजों के सामान समेटकर लन्दन लौटने के समय क्या बदलाव आए और जब जवाहरलाल नेहरू ने अपनी शेरवानी में गुलाब खोंसकर सत्ता हस्तान्तरण को लालकोट से देश की स्वतन्त्रता बताया तब देश के रक्तरंजित बटवारे के दिनों में परदे पर क्या चलने लगा था। ५० से ७० के दशक के बीच श्याम-श्वेत चित्रों में रंग उभरे तब किन कहानियों का जोर था और कौन लोग अभिनय के आकाश में चमकते तारों और सुपरस्टार की उपमा पा रहे थे। ७० से ९० के बीच परदे पर फैली हिंसक अराजकता, व्यर्थ नाचगानों, किन्तु मनोरञ्जक प्रेम कहानियों ने परदे का कोना-कोना रोमाञ्च से सक्रिय कर दिया था।

कला फिल्मों की एक लहर में थिएटर के प्रभावी और कल्पनाशील निर्देशकों और अभिनेताओं ने कम बजट के प्रभावी खेल इसी दौर में खेले। फिर तकनीक ने अपना असर तेजी से दिखाया। टेलीविजन ने सारे खिड़की-दरवाजे खोल दिए। ओटीटी ने तो सिनेमा के आकाश को उन्मुक्त और अराजक ही कर दिया है। जिसमें जितनी हिम्मत हो, जिसकी जितनी ताकत हो, कैसा भी कंटेंट लाए और लाकर दिखाए। भारतीय सिनेमा का यही संक्षेप है। किन्तु १०० वर्षों के इस संक्षेप को तीन सौ साठ डिग्री पर विस्तृत रूप में पढ़ा जाना आवश्यक है। जब संसार के अन्धकारमय अस्तित्व में एक ऐसा परदा प्रकट हुआ, जिस पर परछाइयां गति कर सकती थीं, चित्र उभारे जा सकते थे, उनमें आवाजें पैदा की जा सकती थीं और जब उनमें रंग भी आकर समा गए तब भारत के पास बताने के लिए ऐसा क्या नहीं था, जो परदे पर उसे यादगार बना देता?

परदे पर प्रस्तुत पहली ही कहानी भारत के एक ऐसे ही अमर चरित्र की है, जिसे हजारों वर्षों से जन मानस ने अपनी स्मृतियों में सहेजा हुआ था – “राजा हरिश्चन्द्र” इस दृष्टि से एक नए माध्यम का यह पवित्र शुभारम्भ था। जैसे छोटे परदे पर-“रामायण”। फिर भी कहीं न कहीं इन सौ वर्षों में सिनेमा की समूची पकड़ से वास्तविक भारत अछूता ही रहा है, जबकि उसके पास अनगिनत कहानियां हैं। कहानियां ही नहीं, उसका भोगा-भुगता हुआ सच है। ग्रीक, रोमन और पर्शियन नायकों की अनगिनत गाथाएं विदेशी सिनेमा में जमकर और पूरी भव्यता के साथ उतरी हैं और उन सबसे अधिक समृद्ध और जीवित सभ्यता वाले भारत में जो कुछ भी सिनेमा में रचा गया है, वह बूँद बराबर नहीं है।

१५ नवम्बर २०२१ को जब प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने भोपाल के पुनरनिर्मित हबीबगंज रेलवे स्टेशन का नए नामकरण – रानी कमलापति रेलवे स्टेशन – के रूप में उद्घाटन किया तब देश के लोगों ने जाना कि देश में इस नाम की भी कोई वीरांगना हुई थी। यह रानी कमलापति हैं, जो ३०० वर्षों से भोपाल की स्मृतियों में आदरपूर्वक जैसे इसी एक दिन के लिए ठहरी हुई थीं। सौ करोड़ की लागत से शुद्धिकृत और विकसित हबीबगंज रेलवे स्टेशन को रानी कमलापति के नाम पर समर्पित किया गया तो पूरे देश में रानी कमलापति के चर्चे हो गए। कौन है यह रानी, जो भोपाल की आत्मा में बसी रही?

मध्यप्रदेश में पिछले ६० वर्षों में राजकपूर और सुनील दत्त से लेकर आशुतोष गोवारीकर तक ने अपनी कहानियों को फिल्माया है। प्रकाश झा तो कब से कैमरा लिए भोपाल में ही घूम-भटक रहे हैं। जीवन के सबसे बुरे दिनों में जावेद अख्तर यहीं से मुम्बई की ट्रेन में बैठे थे। वे अब भी शबाना के साथ आकर यहां कैफी के किस्से सुनाते हैं या सियासी मौसम में सेकयुलर तकरीरों में तशरीफ लाते हैं। जया भादुड़ी भोपाल की ही हैं और इस तरह मुमकिन है कि अमिताभ ने भी उनसे रानी कमलापति के बारे में सुना हो। शर्मिला टैगोर ने जिन नवाब पटौदी से निकाह रचाकर बेगम का शाही रुतबा हासिल किया, उन्हें तो शहरयार मोहम्मद खान की किताब “द बेगम्स ऑफ भोपाल” के बारे में पटौदी नवाब ने बडे़ जोश से बताया ही होगा। क्या किस्से हैं उस किताब में और किन किरदारों के जिक्र हैं? इस इलाके के असली हकदार वे गुमनाम किरदार जो भोपाल के हाशिए पर हमेशा के लिए ढकेल दिए गए थे।

रानी कमलापति तो देश की स्मृतियों में झनझनाया एक सबसे ताजा नाम है, जो इसी भोपाल का है। ऐसे अनगिनत भूले-बिसरे सच्चे पात्र आज भी भारत के कोने-कोने की स्मृतियों में गुम हैं, जिन्हें इतिहास की पुस्तकों में जगह नहीं मिली। इस्लाम की मेहरबानी से भारत के जो हिस्से टूटकर अलग हो गए, वहां के ऐसे ही हजारों भुक्तभोगी किरदार हमेशा के लिए गायब किए जा चुके हैं, जिनका नामलेवा भी कोई नहीं है। पाकिस्तान का साहित्य या सिनेमा अगर अपने अतीत में झांकता भी है तो इस्लामी चश्मे से उसे कासिम, महमूद, गोरी, तैमूर और बाबर से लेकर जिन्ना ही नजर आते हैं। असल भारत उनकी शिराओं से सूखकर झड़ चुका है। मगर वह असल भारत, भारतीय सिनेमाई शिराओं में भी कितना उभरकर आ पाया है?

भारत की बेचैनी को दर्शाने वाली राष्ट्रभक्ति पर केन्द्रित अनगिनत फिल्में अंग्रेजों के खिलाफ ९० वर्ष तक चले स्वाधीनता के संघर्ष पर ही केन्द्रित हैं, जो हर दशक में बनती रही हैं। आमतौर पर ये फिल्में यह प्रचलित आमराय बनाती हैं कि भारत को आजादी अंग्रेजी सत्ता से ही पानी थी और १८५७ से १९४७ तक यह संघर्ष सिर्फ ब्रिटेन से था। स्वाधीनता संघर्ष का यह पैमाना हमारी दृष्टि को संकुचित करने वाला सिद्ध हुआ। आम भारतीयों को कितना पता है कि आजादी की लडाई मात्र अंग्रेजों से नहीं थी और न ही यह अंग्रेजों के समय शुरू कोई हिन्दू-मुसलमानों के मिले-जुले संघर्ष की महागाथा थी, जैसा कि परदे पर परोसा गया। कितनों को कभी यह लगता है कि मध्यकाल के इतिहास के महान संघर्ष सिनेमा के परदे से लगभग गायब हैं। मनोज कुमार की ‘शहीद’ से लेकर रिचर्ड एटनबरो की ‘गांधी’ तक, भारत की आजादी की लड़ाई का केन्द्र बिन्दु अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकने के दो-ढाई सौ साल पीछे के निकट अतीत की परिधि में ही घूमता रहा है। इतिहास की पुस्तकों की तरह ही यह एक सिनेमाई अर्धसत्य है।

राहत के तौर पर हम मान सकते हैं कि इन चलचित्रों से हमें दृश्य माध्यमों में अपने नायकों के बलिदान जीवन्त रूप में देखने को मिले, लेकिन इतिहास के महाविस्तार में अपने भोगे हुए सच को देखने की हमारी दृष्टि भी सिमटकर रह गई। इतिहास लेखन में जो बात शरारतपूर्ण ढंग से छोड़ दी गई थी, सिनेमा में उसी गलती का घातक दोहराव हुआ। बडे़ परदे की अपार क्षमता का उपयोग जनमानस को जगाने और अपने अतीत की सही जानकारियां देने में हो ही नहीं सका, कम से कम भारत के इतिहास के संदर्भ में। मध्यकाल का नृशंस इतिहास न किताबों में अपने असल रूप में आ सका और न ही सिनेमा में कहीं नजर आया। यह भारत में थोपी गई एकपक्षीय सेक्युलर सोच के ऐसे विषैले साइड इफेक्ट थे, जो शिक्षा और साहित्य से लेकर रंगमंच और सिनेमा तक जडे़ं जमाए रहे।

मध्यकाल, भारत के हजारों साल पुराने अतीत का वह रक्तरंजित टुकड़ा है, जिसने भारत को वह शक्ल दी, जिसमें वह आज दुनिया के सामने है। नक्शे पर कटी-पिटी रेखाओं में और अपनी आहत आत्मा के साथ सबकी आंखों के सामने। मध्यकाल उस कालखण्ड की शुरुआत है, जब इस्लाम के अनुयाई क्रूर तुर्कों ने दिल्ली पर कब्जा जमाया। बिल्कुल अलग तरह की आक्रामक विचारधारा में पल-बढ़कर लूटमार और कत्लेआम करने में कुशल इन खानाबदोश, हिंसक, मूल्यहीन और बेरहम जत्थों ने भारत को मटियामेट करने में छह सौ सालों तक कोई कसर नहीं छोड़ी। जिस दिल्ली को हमारे ही इतिहासकारों ने इन तुर्कों, अफगानों और मुगलों की राजधानी के रूप में चित्रित किया, दरअसल वह लुटेरों का एक ऐसा अड्डा बना दी गई थी, जिस पर एक के बाद दूसरे दुर्दांत गिरोहों ने कब्जा जमाकर भारत भर में लूटमार के अपने एकसूत्रीय अभियान को जारी रखा था।

किन्तु रंगीन फिल्मों का दौर आने के बाद १९६० में सिनेमा के बडे़ परदे पर यह कहानी बड़ी भव्यता से रंगारंग ‘मुगले-आजम’ की शक्ल में उतरी और २०१८ में “जोधा-अकबर” ने पुनरावृत्ति का दुस्साहस किया। छोटा परदा “टीपू सुल्तान” लेकर आ गया। फिल्मों के निर्माता, निर्देशक और निवेशक, शायर और पटकथा लेखकों ने सच्चाई में जाने का साहस नहीं किया या फिर जानते हुए भी अनजान बने रहे, जो भी हो। सेक्युलर ढांचा इस तरह की अभिव्यक्ति की अनुमति नहीं देता था कि बटवारे के बावजूद “अपनी मर्जी से” भारत के प्रति अथाह प्रेम के चलते यहीं रह गए मुसलमानों की संवेदनशील भावनाओं को कल्पना में भी खरोंच आ जाए।

सिनेमाई कॅरिअर के लिए ऐसा कोई भी प्रयोग घातक सिद्ध हो सकता था। केंद्र और राज्यों की सरकारों के साथ ही सब तरह की अकादमियों, संगठनों और संस्थानों में एक खास विचारधारा के पोषक प्रतिनिधियों का कब्जा रहा, जिसने यह पहरेदारी सुनिश्चित की कि अंग्रेजों के पहले के भारत के सिनेमाई चित्रण में शानदार सेट्स पर अनारकली के नृत्य और जोधाबाई की मोहब्बत ही परवान चढे़।

५० और ६० के दशक में कैमरा और लाइट गरीबों, मजदूरों और किसानों की हालत के इर्दगिर्द अमीरों, कारखाना मालिकों और जुल्मी ठाकुरों के आसपास ही चमकते रहे। इन कहानियों में आमतौर पर ठाकुर को अय्याशी से ही फुरसत नहीं थी। गांव के बनिए को सूदखोर ही होना था और मसखरा ब्राह्मण भी चोटी-तिलक लगाए किसी घात में ही घूमता रहा। आप कन्हैयालाल, के.एन. सिंह, मुख्तार, अनवर हुसैन, सप्रू, जीवन, प्राण, प्रेमनाथ, अजित, ओमप्रकाश, असित सेन की शक्लों को याद कीजिए। ऐसी फिल्म के कल्पनाशील रचयिता, प्रायोजक और प्रस्तोता जो भी रहे हों।

७० और ८० के दशक में सलीम-जावेद टाइप पटकथा लेखकों का शातिर बघार तो अब आम दर्शकों की पकड़ में बखूबी आ गया है। उस दौर की अनेक फिल्मों में एक मुस्लिम किरदार हमेशा ही वचन का पक्का, बड़ा ईमानदार और दीनदार नजर आया। यारी-दोस्ती के नगमे गाते “जंजीर” के पठान प्राण हों या अजान के लाउड स्पीकर सहित “शोले” में संक्षिप्त ए.के. हंगल। क्या ये भारतीय मुस्लिम समाज और भारत में समूची इस्लामी पृष्ठभूमि का असल प्रतिनिधि चेहरा थे? अगर थे तो मजबूरी में ही सही, अमेरिका में ९/११ और मुंबई में २६/११ के बाद कैमरा दूसरे छोर की छिपी या छिपाई हुई असलियत पर फोकस कैसे हो गया, जिसके बारे में सेक्युलर समीक्षक खीजते हैं कि ये वो दुखद दौर है जब आम मुसलमानों को ही आतंकी बताया जाने लगा!

आधुनिक संचार तकनीक से लैस दुनिया में करोडों लोगों द्वारा जीवंत दृश्यों में घर-घर में देखी गई इस्लामी आतंक की इन दो बड़ी घटनाओं के गुनहगारों को बौद्ध भिक्षुओं या जैन मुनियों के लिबास में दिखाने का कोई अहिंसावादी मार्ग था नहीं। उन्हें उनके ही नाम और उनकी ही पहचानों के साथ अजान की गूंजती पृष्ठभूमि में दिखाया जाना सिनेमा के सिर पर देर से आन पड़ी अनचाहे बालों जैसी जरूरत थी। अब रामगढ़ नाम के गांव में लाउडस्पीकर पर अजान की दिल को छू लेने वाली गूंज में नेत्रहीन ए.के. हंगल का दयनीय पात्र काम आने वाला नहीं था, जहां लोगों को चालीस साल बाद समझ में आया कि दरअसल रामगढ़ में बिजली थी ही नहीं वर्ना ठाकुर के घर में विधवा बहू हर शाम बरामदे में लटकी लालटेन क्यों जलाती। अपने ही असल इतिहास से बेखबर मनोरंजन प्रेमी भारतीय दर्शकों को मुगलों की महानता से वाकिफ कराने वाले करीमुद्दीन आसिफ और सलीम-जावेद परदे पर कुछ भी असली-नकली परोसने के लिए स्वतंत्र थे। आशुतोष गोवारीकरों और संजयलीला भंसालियों की आज भी क्या कमी है?

भारतीय जननाट्य संघ यानी इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) के बारे में यह कहा जाता है कि वह स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय मेहनतकश अवाम की आवाज बनकर उभरा। इप्टा की उपलब्धियों के बखान की पृष्ठभूमि में साम्राज्यवादी शक्तियों के संदर्भ में यह रेखांकित किया जाता है कि भारत की स्वतंत्रता के पहले ४० के दशक में पूरी दुनिया पर दूसरे विश्वयुद्ध के रूप में फासीवाद का खतरा मंडरा रहा था। भारत को ब्रितानी साम्राज्यवाद ने जकड़ रखा था। तब ऊर्जा से भरे इस दौर में जगह-जगह कलाकार-साहित्यकार-बुद्धिजीवी एक साथ आए। वे अपनी कला के माध्यम से लोगों में चेतना पैदा कर रहे थे। पहले बेंगलुरु और फिर मुम्बई में श्रीलंकाई मूल के अनिल डिसिल्वा ने पीपुल्स थिएटर की शुरुआत की। पीपुल्स थिएटर का यह नाम वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा ने दिया था। इसके बाद अलग-अलग जगहों पर काम कर रहे समूहों और लोगों का इप्टा के रूप में एक राष्ट्रीय मंच बना।

५ मई, १९४३ को हिरेन मुखर्जी ने बंबई में इप्टा के स्थापना सम्मेलन की शुरुआत करते हुए कहा- “आप सब, जो कुछ भी हमारे भीतर सबसे अच्छा है, उसे अपनी जनता के लिए अर्पित कर दें। लेखक और कलाकार आओ, आओ अभिनेता और नाटककार, तुम सारे लोग, जो हाथ या दिमाग से काम करते हो, आगे आओ और अपने आपको आजादी और सामाजिक न्याय का एक नया वीरत्वपूर्ण समाज बनाने के लिए समर्पित कर दो।”

परख लीजिए, हाथ और दिमाग से क्या रचा गया। इप्टा की इस लहर में फासीवाद का प्रचलित उल्लेख जर्मन तानाशाह एडोल्फ हिटलर के संदर्भ में है, जिसके सिर पर लाखों यहूदियों के नरसंहार के अमिट अपराध हैं। लेकिन हिटलर को तथाकथित नस्ली श्रेष्ठता और जातीय नरसंहार का एकमात्र विलेन बनाते हुए इप्टा के कारीगरों ने उससे भी महाभयानक मध्यकाल के भारतीय संदर्भ को रंगमंच और परदे से पूरी तरह गायब कर दिया, जबकि तुर्कों के दिल्ली पर कब्जे के बाद भारतीयों पर ढाए गए बेइंतहा जुल्मों और उनके अकथनीय अंतहीन नरसंहारों की सात सौ साल लंबी शृंखला है, जिनके ब्योरे भी समकालीन इतिहासकारों ने किसी फिल्मी पटकथा की तरह ही जीवंत लिख छोडे हैं। आधुनिक विश्व के इतिहास का सबसे बडा विलेन हिटलर मध्यकाल के भारत में इल्तुतमिश, बलबन, अलाउद्दीन खिलजी, मोहम्मद तुगलक, फिरोज तुगलक, सिकन्दर लोदी, तैमूर, बाबर, अकबर और औरंगजेब के आगे बारह साल का एक शरारती बिगडैल स्कूली बच्चा ही है। इनमें कश्मीर, गुजरात, बंगाल और मालवा में सदियों तक काबिज रहे स्वतंत्र मुस्लिम तानाशाहों के खूनी कारनामे अलग हैं, जिनमें से हरेक के आगे हिटलर एक मामूली जिद्दी बच्चे के सिवा कुछ नहीं है।

इस्लाम की मजहबी श्रेष्ठता के आक्रामक दावों और शेष संसार को काफिर का ठप्पा लगाकर कत्ल करने योग्य मानने का विचार हिटलर की नस्लीय श्रेष्ठता के स्वयंभू दावों से कहां अलग है और हिटलर तो दस-बारह साल के अपने पागलपन के साथ जर्मनी में ही खत्म हो गया, इस्लामी आवरण में वह फैलाववादी हिंसक विचार तो आज भी पूरी दुनिया को चबा डालने पर हर कहीं आमादा है।
मगर भारतीय सिनेमा के कल्पनाशील दूरदृष्टा क्या कर रहे हैं? नामी-गिरामी शोमैन क्या शो करते रहे हैं? सदी के महानायकों ने नायक के कौन से गुणधर्म हमारे सामने पेश किए हैं? ट्रेजेडी कग को कभी के. आसिफ के साथ भारत की इस ट्रेजेडी पर किसी पटकथा के बारे में बात करने का मौका नहीं मिला? किंग खान किस बुनियाद पर कहां के किंग बन गए? सुपर स्टार में सुपर का आधार क्या है और स्टार क्यों कहलाते हैं?

१९९३ में स्टीवन स्पिलवर्ग की एक फिल्म आई थी- “शिंडलर्स लिस्ट” दूसरे विश्व युद्ध के दौरान पोलैंड में रहने वाले यहूदियों पर नाजियों के जुल्म पर बनी इस बेहद यादगार फिल्म में एडोल्फ हिटलर एकाध दृश्य में दीवार पर टंगी तस्वीर में ही नजर आया। नाजी दल से जुडे़ चेकोस्लोवाकिया के जर्मन कारोबारी ओस्कार शिडलर्स के किरदार पर केंद्रित इस फिल्म का हर शॉट और हर सीन युद्ध में बेकसूरों की पीड़ा को हृदय की गहराइयों तक महसूस कराता है। बेन किंग्सले फिल्म में एक असरदार भूमिका में हैं। हिटलर की फौजों के हाथों हुए यहूदियों के नरसंहार पर अनगिनत फिल्में बनी हैं, लेकिन अमेरिकन फिल्म इंस्टीट्यूट ने इसे अब तक अमेरिका में बनी सौ फिल्मों की लिस्ट में टॉप टेन में सम्मिलित किया।

नाजियों के बीच शुद्ध कारोबारी इरादे से गए शिंडलर्स ने अपनी पूरी कमाई दाव पर लगाकर भ्रष्ट नाजी अफसरों को रिश्वतें दीं और १,२०० यहूदियों को बेमौत मरने से बचाया था और जब छह साल की लड़ाई समाप्त तो खुद भागने के पहले कृतज्ञ यहूदियों की भीड़ के बीच वह अपनी कार को देखकर रोया कि वह इसे बेचकर १०-२० को और बचा सकता था। यह अकारण युद्ध की हिंसा, उसके शिकारों की अकथनीय मानवीय पीड़ा, नैतिक मूल्यों और उसकी महान विजय की गाथा है, जिसे ब्लैक एंड व्हाइट फिल्माया गया। सड़क की भीड़ के बीच पांच साल की एक बच्ची का लाल कोट अकेला दृश्य है, जिसमें कोट को लाल दिखाया गया। वह बच्ची भीड़ से बचकर एक गली में गुम हो जाती है।

“ट्रॉय” दो प्राचीन राज्यों ट्रॉय और स्पार्टा के शासकों के बीच हुए ऐतिहासिक युद्ध पर २००४ में हॉलीवुड में बनी ऐसी ही एक और यादगार फिल्म है, जिसकी तरह के अनगिनत कथानक भारतीय इतिहास में भरे पडे़ हैं। भारत के मध्यकाल का इतिहास ऐसी फिल्मों के लिए इतना उर्वर है कि हर सदी में देश के किसी न किसी कोने में घटी कोई न कोई बड़ी ऐतिहासिक घटना दस्तावेजों में दर्ज है। लेकिन सतही मनोरंजन के अधिकतर व्यर्थ विषयों में विचरण करने वाले भारतीय सिनेमा ने गहरी रिसर्च पर आधारित ऐसी किसी कृति के निर्माण में कोई रुचि नहीं दर्शाई। वे मुगले-आजम और जोधा-अकबर में ही इतिहास की इतिश्री करते रहे।

रोमन, ग्रीक और पर्सियन के युद्ध कथानकों से लेकर दोनों विश्व युद्ध, हिटलर की क्रूरता और उसके जोशीले नाजियों के शिकार बने लाखों निर्दोष यहूदियों की अंतहीन पीड़ा, वियतनाम युद्ध से लेकर अफगानिस्तान त्रासदी पर अनगिनत असरदार फिल्में दुनिया भर में आज तक बनती हैं लेकिन मध्यकाल के भारत का भोगा हुआ सच परदे के किस कोने में, परदे के आगे या पीछे कहां है, किसी ने देखा? मध्यप्रदेश को ही लें तो बाबर के चन्देरी हमले और रानी मणिमाला के जौहर की कथा, अकबर के हाथों धूलधूसरित हुए रानी दुर्गावती के राज्य की करुण कथा, शेरशाह सूरी के हाथों छल से एक ही दिन में खत्म किए गए रायसेन के राजवंश की अनकही कहानी में ऐसा क्या नहीं है, जो परदे से खारिज हैं? यह भारत में भारतीयों के सदियों तक हुए दमन के चन्द पड़ोसी पन्ने हैं। ऐसे पन्ने हर राज्य में फड़फड़ा रहे हैं और वीरता के बेमिसाल किरदार भी इतने ही हैं मगर हमारे सिनेमा के निर्माता निर्देशक अकबर और जोधा का मायाजाल ही बुनते रहे। जब तक पूरे साहस के साथ इतिहास के सच को, इतिहास के सच ही तरह ही प्रस्तुत नहीं किया जाता, सिनेमा के सौ वर्ष का भारतीय सन्दर्भ अधूरा है।

 

साभार: चित्र जगत भारत बोध