भारत में सिनेमा माध्यम को आए हुए १०० से अधिक वर्ष हो चुके हैं और आज भी इस बात को लेकर चर्चा जारी है कि सिनेमा की उपयोगिता क्या है? केवल मनोरंजन? प्रबोधन? आजीविका का साधन? या फिर और भी कुछ?
सिनेमा भले ही एक नया और तकनीकी माध्यम हो कहानियों को बताने का, पर भारत में वैदिक काल से ही कहानियाँ कहने और सुनने की परंपरा रही है। नैमिषारण्य में भी पुराणों को संकलित करने के विषय में हमें प‹ढने को मिलता है। चाहे जातक कथा हो या फिर पंचतंत्र की कहानियाँ इनका प्रभाव भारत से लेकर सुदूर यूरोप तक रहा है। जनसाधारण को कला के माध्यम से वेद, उपनिषद और पुराणों में छुपे मर्म को समझाने के लिए भरत मुनि द्वारा नाट्य शास्त्र की रचना हुई और फिर नाटकों के विकास का क्रम चलता रहा और लगभग पूरे भारत वर्ष में नाटकों का लंबे समय तक एक स्वर्णिम युग रहा।
उस समय एक से ब‹ढकर एक कालजयी नाटकों का लेखन और मंचन हुआ। उनमें से कई नाटकों का मंचन तो हजारों वर्षों बाद आज भी हो रहा है। पर मध्यकाल में भारत में विदेशी आक्रांताओं के कारण समाज में जो अवस्थाएं उत्पन्न हुईं उसी से सामान्य जन-जीवन के साथ कला और संस्कृति का भी ह्रास हुआ। उन आक्रांताओं के धार्मिक विश्वास में भी संगीत, नृत्य और नाटक जैसे विषय वर्जित थे और अगर उन्होंने इसका उपयोग भी किया तो अधिकाशंतः उसका उद्देश्य मनोरंजन तक सीमित रहा। फिर भी, गोस्वामी तुलसीदास जैसे भक्ति काल के संतों ने रामचरित मानस जैसे ग्रंथों की रचना की। जो देशवासी शिक्षा से वंचित रह गए थे उनके लिए रामलीला के मञ्चन की शुरुआत की और परातंत्र भारतवासियों को ये समझने में सक्षम रहे कि भले ही आज हमारी भूमि पर किसी बादशाह या सुल्तान का कब्जा है पर हमारे राजा आज भी मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ही हैं। केवल गोस्वामी तुलसीदास ने ही भारतीय समाज को जगाए रखने का प्रयास नहीं किया बल्कि ऐसा ही काम सुदूर उत्तर पूर्व में श्रीमंत शंकरदेव कर रहे थे। गुजरात में नरसिंह मेहता से लेकर आधुनिक काल के शुरुआत में बंगाल में श्री रामकृष्ण परमहंस तक ने नाटक व संगीत को ब‹ढावा देते हैं।
वहीं यूरोप में पुनर्जागरण के बाद विज्ञान ने एक नई छलांग लगाई और तकनीक का तेजी से विकास होने लगा। उसी क्रम में स्टिल फोटोग्राफी और फिर सिनेमा का विकास हुआ और लम्बे समय तक सिनेमा पर भी नाटकों का प्रभाव रहा। बल्कि कह सकते हैं आज भी है। भले ही तकनीकी सुलभता के कारण सिनेमा का स्वरूप व्यापक हो गया पर कथा की दृष्टि से सिनेमा का जनक एक तरह से नाट्य ही है।
भारत में जब सिनेमा आया तो एक ओर बंगाल में हीरा लाल सेन जैसे फिल्मकार बंगाल के विभाजन के विरोध में हो रहे जन आंदोलन को अपने कैमरे से रिकॉर्ड कर रहे थे जिसमें भारतीयों की वंदे मातरम की घोष अंग्रेजी सरकार को चिन्तित कर रही थी तो दूसरी ओर महाराष्ट्र में दादा साहब ङ्काल्के राजा हरिशचन्द्र जैसी फिल्में बना रहे थे। भारतीय अध्यात्म और दर्शन सिनेमा के माध्यम से भी विश्व के सामने आ रहा था। ये कहना अतिशयोक्ति होगा की दादा साहब फाल्के भी कहीं न कहीं उसी भावना से काम कर रहे थे जो भावना हमारे संतों के मन में थी।
हमें ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं जहां कई फिल्में और उनके गाने समय-समय पर ब्रिटिश सरकार को विचलित करते रहे हैं। पर स्वतंत्रता के बाद भारत में एक नए प्रकार का विचार पैर पसारने लगा। रूस में हुए विद्रोह से प्रेरणा लेकर भारत में वामपंथ ने अपने पैर जमाने का प्रयास किया। हालांकि जब मध्ययुग में विदेशी आक्रांताओं के लंबे शासन ने भारतीयों की आध्यात्मिक शान्ति और दर्शन को मिटा नहीं पाई तो वामपंथ जैसे अप्राकृतिक और अव्यवहारिक विचार का प्रभाव इस देश में नगण्य ही रहने वाला था। शायद इस बात को समझने के बाद ही उन्होनें भारतीय जनमानस के मस्तिष्क पर कब्जा करने का प्रयास शुरू किया।
संभवत: उसी उद्देश्य से १९३६ में प्रगतिशील लेखक संघ और फिर इप्टा भारतीय जन नाट्य संघ जैसे संगठनों का गठन किया गया। स्वतंत्रता के कुछ पहले से अभी तक इन संगठनों के लेखक और कलाकारों का सिनेमा पर बहुत ब‹डा प्रभाव रहा और आज भी है। इसी प्रभाव को “सॉफ्ट पॉवर” की भी संज्ञा दी जाती है कि किस प्रकार मनोरंजन, कहानी एवं अन्य ऑडियो-विजुअल माध्यमों से लोगों के सोचने पर अपना प्रभाव जमाया जाए। इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे की इस “सॉफ्ट पावर” का उपयोग लोगों को जोड़ने के लिए नहीं बल्कि आपस में लड़ाने के लिए हुआ। अपनी संस्कृति के प्रति हीन भावना उत्पन्न करने के लिए हुआ। उस विचार के लोग खुलेआम कहते हैं कि हमारा काम घाव पर मलहम लगाना नहीं बल्कि नमक लगाना है, जिससे जलन पैदा हो, घाव नासूर बन जाए। शायद इसके पीछे का एक मात्र उद्देश्य कला की सी‹ढी पर च‹ढकर सत्ता के सिंहासन पर बैठना है। उनकी यह धारणा, भारतीय धारणा “सा कला विमुक्ते” से बिलकुल विपरीत है।
भारत में कला को साधना और मुक्ति का मार्ग माना गया है। भारतीय समाज सर्व समावेशी है, वह सबको अपना समझता है। पूरा विश्व एक परिवार और सबके कल्याण की कामना करने वाला है। हम ब‹डी रेखा खींचने में विश्वास रखते हैं, दूसरी रेखा को मिटाने में नहीं। अनजाने में ही सही पर भारतीय सिनेमा ने यह काम भी कई बार किया है।
मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर ऐसे कई उदाहरण दे सकता हूं। २००५ के आसपास मैं इंडोनेशियाई टेलीविजन के लिए भी स्क्रिप्ट लेखन करता था तब मैंने इंडोनेशिया में लोगों को हिन्दी गाना गाते हुए पाया। यहां तक कि वहां के संगीत के कार्यक्रमों में भी एक तिहाई गाने हिन्दी सिनेमा के होते थे। जर्मनी में रहने वाली एक ल‹डकी हिन्दी सिनेमा देखने के बाद भारत आ गई और हिन्दी फिल्मों में काम करने लगी आज वह किसी भी हिन्दी भाषी की तरह हिन्दी में बात करती है और वैचारिक रूप से भी भारतीय है। हमारी सिनेमा देख कर इजराइल से एक लड़की भारत आती है और कुछ समय के लिए मुंबई में मेरे नाट्य समूह से भी जुड़ी। वह केवल हिन्दी भाषा ही नहीं बल्कि कई भारतीय पारंपरिक वाद्ययंत्र भी बजाना सीख रही है। २००६-०७ में पूर्वी यूरोप से एक ५५ वर्षीय महिला भारत के सिनेमा पर शोध करने आती है और कम्युनिस्ट शासन में हुए अपने देश के लोगों की क्रांतिकारी अनुभवों को सुनाती है और मुझे सचेत करती है- “तुम फिल्मकार बनने के चक्कर में कम्युनिस्ट मत बन जाना।” पाकिस्तान के लोग भारतीय सिनेमा के दीवाने हैं। यहां तक कि भारत में भारतीय सिनेमा का पायरेसी व्यवसाय भी लंबे समय तक वहीं से संचलित होता रहा है। २०१५ -१६ में जब मैं नागालैंड जैसे अशांत क्षेत्र में नागा भाषा में बनी पहली फिल्म “नानी तेरी मोरनी” की शूटिंग करने गया तो फिल्म निर्देशक होने के कारण वहां के लोगों ने मुझे गले से लगा लिया। इसका एक प्रभाव यह भी पड़ा कि ७० वर्षों में पहली बार २०१९ में प्रयागराज में होने वाले अर्धकुंभ में नागालैंड से ४०० से अधिक लोक कलाकार आए और अपनी कला का प्रदर्शन किया। प्रयागराज में साधु संतों और अन्य कलाकरों से मिलने के बाद उन्होंने व्यक्तिगत रूप से मुझे फोन करके कहा कि हिन्दू बुरे नहीं होते हैं जैसा कि आज तक कुछ लोगों ने हमें बताया था।
हमारे पूर्वज भी नदियों और वृक्षों को पवित्र मानते थे, उनकी उपासना करते थे तो फिर हम सब तो एक ही हुए न? हमें अगले कुंभ की प्रतीक्षा रहेगी पर आप लोग हमें बुलाना मत भूलना। आज भी पाकिस्तान के कई लोग मेरा नाटक “मोहनजोदड़ो” का प्रदर्शन देखने के लिए लालायित हैं। उन्हें मेरी अगली फिल्म का भी इंतजार है। कहने का तात्पर्य यह है कि जो काम कई बार राजनैतिक और कूटनैतिक लोग नहीं कर पाते वह काम कला और कलाकार आसानी से कर देते हैं क्योंकि कला का मूल कहीं न कहीं सात्विक है।
दक्षिण पूर्व देश के पुराने मंदिरों में रामायण और महाभारत की कलाकृतियां आज भी देखी जा सकती हैं। इंडोनेशिया में रहते समय मैंने अनुभव किया कि इस्लाम मानने वाले लोगों को भी रामायण और महाभारत की कथाएं बहुत अच्छे से पता है। यहां तक कि भीम और घटोत्कच को इस्लाम माने वाले लोग भी बडे़ आदर की दृष्टि से देखते हैं। एक तरह से उन्हें ग्राम देवता या रक्षक देवता के रूप में मानते हैं। चीन का कम्युनिस्ट शासन भारत के प्रति कोई भी भाव रखता हो पर चीन के कई नागरिक भारत में आज भी तीर्थ यात्रा पर आते हैं। इसका कारण है रामायण, महाभारत और तथागत बुद्ध की कहानियाँ वे इतनी बार सुन चुके हैं उनके लिए भारत कोई पराया नहीं है। यह सब हमारे मनीषियों द्वारा अतीत में किए गए कार्य हैं जिसके कारण विश्व में आज भी हमें सम्मान मिल रहा है। लेकिन क्या हम अपना विशेषकर सांस्कृतिक क्षेत्रों में, कोई योगदान दे पाए हैं?
जिस तरह से वैश्विक राजनीति में तेजी से परिवर्तन हो रहा है उससे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि आने वाले समय में विश्व एक ध्रुवीय या दो ध्रुवीय न होकर कम से कम त्रिध्रुवीय हो सकता है। यह एक तरह से भारत जैसे देशों के लिए शुभ संकेत हैं और निकट भविष्य में युद्ध सामरिक से अधिक आर्थिक और सांस्कृतिक मोर्चों पर लड़े जाएंगे। इसके लिए क्या हमारी ओर से कोई तैयारी है? जिस यूरोप से कभी सिनेमा की शुरुआत हुई थी वह आज हॉलीवुड सिनेमा के सामने व्यापार के मामले में गौण हो चुका है। भले ही चीनी लोगों में भारतीय सिनेमा बहुत लोकप्रिय है पर चीनी सिनेमा भी तेजी से पैर पसार रहा है। यहां तक की भारत के मनोरंजन क्षेत्र में भी विदेशी बोलबाला है।
इतिहास से हमने जाना है कि कोई भी दुर्ग पूरी तरह से अभेद्य नहीं होता है या तो किले की कोई न कोई दीवार कमजोर रह जाती है या फिर भीतर से ही कोई किले का दरवाजा खोल देता है। इसलिये फिल्मकारों और भारतीयों चिंतकों को साथ बैठ कर सिनेमा की नयी उपयोगिताओं के बारे में चिन्तन करने की आवश्य कता है। वैश्विकरण के युग में हम खुद को बंद करके नहीं रख सकते हैं। हम पश्चिम से बहुत कुछ ले रहे हैं पर हम अपनी ओर से उन्हें क्या दे पा रहे हैं? विशेषकर सांस्कृतिक क्षेत्र में? प्रजातांत्रिक और समावेशी होने के बाद भी ग्लोबल सॉफ्ट पावर इंडेक्स में भारत चीन जैसे देशों से लगातार पिछ‹डता जा रहा है। क्या विश्व में भारत की सही छवि प्रस्तुत करने के लिए सिनेमा की कोई भूमिका हो सकती है? क्या सिनेमा के माध्यम से विश्व भारत को देख और समझ सकता है? ऐसे कई प्रश्न हैं।
एक समय राज कपूर और उनकी फिल्में रूस में बहुत लोकप्रिय हुआ करती थीं। इतना ही नहीं, मिथुन चक्रवर्ती रूस में आज भी बहुत लोकप्रिय हैं। अफगानिस्तान के हालात बिगड़ने से पहले तक आम अफगानी अमिताभ बच्चन के जबर्दस्त प्रशंसक हुआ करते थे। रजनीकांत की फिल्में जापानियों को बहुत पसंद आती हैं। सिनेमा के साथ-साथ भारतीय टीवी सीरियल के कलाकार भी इंडोनेशिया जैसे देशों में बहुत लोकप्रिय हैं। अमेरिका और कैरेबियन देशों में बसे भारतीय, मलेशिया में बसे हुए तमिल भाषी लोग भारतीय सिनेमा में आज भी अपना अतीत और शायद भविष्य दोनों ढूंढ़ने का प्रयास कर रहे हैं।
सिनेमा केवल मनोरञ्जन का ही माध्यम नहीं है, ये आधुनिक युग में तकनीक के माध्यम से लिखे जाने वाले साहित्य हैं। क्या पता इनमें से कुछ भविष्य में ग्रंथ जैसी मान्यता भी प्राप्त कर लें। फिर जैसे आज हम विश्वभर में फैली अपनी संस्कृति को देखकर अपने पूर्वजों पर गर्व करते हैं उसी प्रकार से आने वाली पीढ़ियाँ भी हमारे सिनेमा के कारण हम पर गर्व कर सकें। क्या पता वसुधैव कुटुम्बकम का विचार शायद एक दिन हमारे सिनेमा के माध्यम से ही साकार हो जाए। ईश्वर करे ऐसा ही हो।
साभार: चित्र जगत भारत बोध