किशोर कुमार – गायकी के एकलव्य

मनोज श्रीवास्तव

 

वर्ष १९४८ में जिद्दी के एकल गीत से लेकर १९८८ में वक्त की आवाज में आशा भोसले के साथ गाए युगल गीत तक के ४० वर्षों में २९०५ फिल्मी गीत, २६६ प्राइवेट एल्बम हिन्दी गीत और २२१ बंगाली गीत गाने वाले किशोर कुमार ने १०२ फिल्मों में भी काम किया था, १४ फिल्में लिखीं और और उनका निर्माण किया, पाँच फिल्मों के स्क्रीनप्ले लिखे और १२ फिल्मों का निर्देशन किया। २४ गीत लिखे। यह संख्या उनकी बहुआयामी प्रतिभा का प्रारंभिक परिचय है।

किशोर कुमार ‘चलती का नाम गाडी’, ‘बाप रे बाप’, ‘पैसा ही पैसा’, ‘पड़ोसन’ और ‘लड़का-लड़की’ जैसी फिल्मों के जरिए संगीतमय कॉमेडी प्रस्तुत करते रहे। ऐसा नहीं कि किशोर ने गंभीर अभिनय किया ही नहीं। विमल रॉय की फिल्म नौकरी में किशोर नायक हैं। ‘पड़ोसन’ की तरह यहाँ भी उनके सामने वाली खिडकी में एक चांद का टुकड़ा रहता है, किन्तु यहाँ खिड़की की कॉमेडी गायब है। यहां भी वे गमे-इश्क और गमे-दुनिया की उसी झंझट से जूझते हुए नजर आते हैं। दोनों बार आत्महत्या का प्रयास है। एक में नायिका बचा लेती है, दूसरी में मिलावट। दोनों में एक-एक गीत किशोर का ऐसा है जो खालिस आशा और उल्लास का गीत है और जिसमें किशोर के सहज प्रकृत व्यक्तित्व की खुशबू भी है और उजास भी। नौकरी में ‘छोटा सा घर होगा बादलों की छांव में’ गीत सुनिए। तब भी एक ममता थी जब किशोर कहते थे ‘मेरा क्या है पडा रहूंगा अम्मी जी के पांव में’ और मुसाफिर के ‘मुन्ना बड़ा प्यारा, अम्मी का दुलारा’ में भी वही ममता है। अभिनय की क्षमता के कारण ही अपने समकालीन गायकों में किशोर की गायकी ही सर्वाधिक परफॉरमेंस गायकी है। उनका पूरा शरीर गाने के उनके उपकरणों में से एक ही उपकरण लगता है।

यह महान के.एल. सहगल का ही प्रताप था कि हिन्दी फिल्म संगीत की त्रिमूर्ति ने अपने कॅरियर का पहला गीत उनके प्रभाव में ही गाया। मुकेश का ‘दिल जलता है तो जलने दे’, रफी का जी.एम. दुर्रानी के साथ गाया गीत ‘अजी दिल हो काबू में’ और किशोर का जिद्दी फिल्म का गीत ‘मरने की दुआएं क्यों मांगू’ सहगल का संस्पर्श लिए है। बाद में इन सभी ने सहगल प्रभाव से मुक्त होकर अपनी स्वतंत्र शैली विकसित की।

पता नहीं ऐसा क्यों हुआ, किन्तु इस त्रिमूर्ति ने जीवन के पचास वर्ष पूरे होने के बाद दुनिया छोड़ी और हार्ट अटैक से ही छोडी। किन्तु खण्डवा का छोकरा अपनी जिस योग्यता के कारण आज भी विशिष्ट है वह तो सीधे स्विस और आस्ट्रियन अल्पाइन से ली गई यॉर्डलिंग थी। पर्वत शिखरों के बीच संचार की यह विशेष भाषा मैदान के इस खण्डवाई ने कैसे सीख ली? मध्य अफ्रीका के पिग्मी गायक भी यॉर्डलों का उपयोग करते हैं किन्तु किशोर उनके संसर्ग में भी कब आए थे? क्या इसका रहस्य उन आस्ट्रियाई रिकार्डों में था जो किशोर के भाई अनूप कुमार ले आए थे? या फिर किशोर के भीतर क्या हमेशा से झरनों जैसी स्वच्छन्दता नहीं रही? और क्या वे निर्झर की तरह हमेशा से मुक्तमना नहीं रहे?

अमेरिका के अभिनेता भाइयों – बाल्डविन्स – की तरह अशोक, किशोर और अनूप कुमारों की यह अभिनय-त्रिवेणी बचपन के कैसे-कैसे प्रभाव खण्डवा की गलियों में इकट्ठा कर रही थी? जैसे बच्चे पत्थरों से खेलते हैं, किशोर ने सुर-प्रस्तर को तराशना और उसे अपनी मर्जी से लचीला बनाने का उद्योग बचपन से ही आरंभ कर दिया था। आगे जाकर अपने गीतों में उन्होंने न केवल इस उद्योग को बल्कि अपने बचपन को भी जीवित रखा। उनके गायन में एक अनूठी सहजता है।

यॉर्डलिंग निरर्थकता में अर्थ की खोज है। उसी से बाद में ‘ईना मीना डीका’ जैसी चार्मिंग नॉनसेंस का जुमला पैदा हुआ होगा। यॉर्डलिंग सुर के संसार में निराला की कविता ‘ताक कमसिन वारि’ सरीखी है। बूम बूम बूम पीटी, चिकी चिकाचिक, चिक चिक, यॉर्डल्हे, यॉडेल्हे जैसी ध्वनियां एक तरह से जैसे यह बताती हैं कि संगीत के हरे-भरे मैदान में यह एक किशोर मन-मन भर दौड लगा रहा है तो दूसरी तरफ यह भी कि संगीत अंतत: शब्द नहीं है, ध्वनि है।

तलत महमूद का ‘बाइब्रेटो’ और ‘ट्रेमेलो’ सुनकर लगता है कि गाना सुर की सिल्की-सी सिहरन है किन्तु किशोर के यॉर्डल्स सुर की आजादी की पुकार हैं। बाइब्रेटो ने तलत को एक गहराई बख्शी थी। यॉर्डल्स ने किशोर को एक आकाश सौंपा। यह आकाश जिसमें किशोर की रिदमिकल एनर्जी कभी ‘इक चतुर नार बडी होशियार’ में अभिव्यक्त होती है, कभी ‘मैं हूँ झुम-झुम-झुम-झुम झुमरू’ में होती है और ‘कभी खई के पान बनारस वाला’ में। यह आकाश जिसमें किशोर के व्यक्तित्व की ड्रामेटिक फ्लेयर है, नाटकीय लपट।

जीवन साथी का उनका एक गीत-‘चला जाता हूँ किसी की धुन में’ दो भिन्न फंडामेंटल टोन्स को इच्छानुसार खेलने की जादूगरी दिखाता है, एक छोटी हद तक टिम टॉर्म की याद दिलाता हुआ जिनके नाम लोएस्ट वोकल नोट बी टू और छ: ऑक्टेव की ग्रेटेस्ट रेंज का गिनीज रिकॉर्ड दर्ज है। आकाश वाला विस्तार। यह आकाश हमेशा मस्ती का आकाश हो, यह जरूरी नहीं। यह वेदना के अनन्त को भी उतनी ही प्रामाणिकता से प्रकट करता है। उनके ब्ल्यूस को सुनना है तो सुनें ‘मंजिलें अपनी जगह हैं, रास्ते अपनी जगह। एक दूसरा उदाहरण लें ‘तुम बिन जाऊं कहां’।

प्यार का मौसम फिल्म के इस गाने के दो रूप हैं। एक शशिकपूर पर फिल्माया मोहम्मद रफी का गाया गीत। दूसरा भारत भूषण पर फिल्माया किशोर का गाया गीत। अंतरों के बीच एक सांगीतिक इंटरल्यूड है। रफी के गीत में जो काम मेण्डोशलिन से हुआ, किशोर ने उसे यॉर्डले से किया है और दर्द को जैसे पंख दे दिए हैं।

किशोर कुमार की एक विशेषता उनका कवित्त है। वह अपने लिखे गीतों को संगीत, स्वर, अभिनय और निर्देशन की चारों भूमियां दे सकते हैं। इस मामले में वे पॉल मैकार्टनी, बॉब डायलन, नील यंग और जीन क्लार्क की तुलना में खडे नजर आते हैं जो गीत लिखते भी हैं और गाते भी हैं। उनकी ये गीत-कविताएं बहुत सॉफ्ट और सेन्सिटिव हैं।

अपने पुत्र अमित को गोद में उठाकर जब वे ‘आ चल के तुझे मैं ले के चलूं’ जैसा स्वरचित गीत गाते हैं तो वे सिर्फ यूटोपिया ही नहीं रचते ‘आशा का संदेशा’ भी रचते हैं। ‘ये हवा ये चांदनी सुहानी’ में उनका कवि बहुत ही नरम उपमा से हमें बांध देता है। ‘ऐसे मैं चल रहा हूं पेड़ों की छांव में/जैसे कोई सितारा बादल के गांव में’।

कल्पना का यह सॉफिस्टिकेशन किसी के बस की बात नहीं। रूस के गायक गीतकारों का वर्ग बार्ड भी कुछ ऐसा ही हुआ करता था। उसमें ‘कार्ड प्रोग्रेशन’ बहुत ही सादा होता था और गीत के शब्दों का चयन भी बहुत मुलायम जमीन पर हुआ करता था। जमीन पर तो कम और आसमान में अधिक। इन गीतों का टेम्पो और मीटर दोनों ही किशोर-दा के मक्खन की तरह सुचिक्कण मन की परिणतियां थीं, किन्तु इन गीतों में आकाश तत्व अधिक है। किशोर के भीतर कहीं एक स्वप्नदृष्टा या एक मिस्टिक जरूर जीवित था।

यह संयोग भर नहीं है कि किशोर की एक ‘दूर’ ट्राइलॉजी है। ‘दूर गगन की छांव में’, ‘दूर का राही’ और ‘दूर वादियों में कहीं’। इस ट्राइलॉजी में गीतों का यह योगी प्रयोगी हो गया और उसका बहुत ही गंभीर व्यक्तित्व सामने आया। फिल्म ‘दूर गगन की छांव में’ को फिल्म आलोचकों की प्रशंसा और अवॉर्ड मिले।

‘दूर वादियों में कहीं’ एक गायक अभिनेता के द्वारा बनाई गई गीतविहीन फिल्म थी। यह आदमी जो हम सबके इतना करीब हो गया था, दूर के रोमांस से इतना ग्रस्त क्यों था? जहां वक्त विदा लेता हो, जहां आंखों के अनादि अन्वेषण पूरे होते हों, जहां सत्य किसी दूध की नदी की तरह बहता हो, उस द ग्रेट बियाण्ड की अभीप्सा शायद हम सबके भीतर की सनातन मर्मर है और किशोर उसे ही व्यक्त करना चाहते रहे हों। असंभव नहीं, पर खुद किशोर के मन की रासायनिक संरचना में भी कहीं इस अभीप्सा के मॉलीक्यूल्स हैं। ये पनपे हैं, क्षण के, क्षणिकता के उस बोध से जिसने किशोर को ‘पिया का घर’ का वह गीत इतना ‘सोलफुली’ गाने को प्रेरित किया : ‘ये जीवन है इस जीवन का यही है यही है रंग रूप’ या ‘गोलमाल’ का एक पल में पूरी जिन्दगी की स्वायत्तता रचने वाला गीत ‘आने वाला पल जाने वाला है’ या मुनीम जी का ‘जीवन के सफर में राही मिलते हैं बिछड़ जाने को’।

ऐसे कई गीत हैं किशोर के जिन्हें सुनकर पता ही नहीं चलता कि कब वह प्रैंकस्टर चेहरा गायब हो गया और उसका स्थान एक ऐसे गंभीर व्यक्ति ने ले लिया जिसे हम अपनी आत्मा का गॉडफादर कह सकते हैं। जो कभी हमें बताता है कि ‘जिन्दगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मकाम वो फिर नहीं आते’। तो जो कभी हमें ढांढस भी बंधाता है ‘कहां तक ये मन को अंधेरे छलेंगे, उदासी भरे दिन कभी तो ढलेंगे।’ यह एक ऐसा गायक है जो पिता एस.डी. बर्मन और पुत्र आर.डी. बर्मन दोनों का प्रिय है। देवानंद की पीढी को भी, राजेश खन्ना की पीढ़ी को भी, अमिताभ की पीढ़ी को भी। २७ बार फिल्म फेयर अवॉर्ड के लिए नामांकित होने वाले और आठ बार उसे जीतने वाले किशोर को, तीन बार अमिताभ की आवाज के लिए, दो बार राजेश खन्ना की आवाज के लिए अवार्ड मिला। देवानंद के लिए कभी नहीं। इसका अर्थ यह है कि किशोर कुमार उम्र के बढ़ने के बाद भी उत्तरोत्तर युवतर पीढ़ी के लिए और मौजूं और माकूल और सच्चा गा रहे थे।

साभार: चित्र जगत भारत बोध