भारतबोध एवं राष्ट्रत्व को सहजता से स्वीकार कर रहा सिने जगत

प्रो. बृज किशोर कुठियाला, अमरेन्द्र कुमार आर्य

सिनेमा राष्ट्र के पुनरुत्थान व सौंदर्ययुक्त कलात्मक स्वरों का एक अभिव्यक्त सेतु है। यह एक ऐसा माध्यम है जिसका प्रभाव तेजी से देश व समाज के लोगों पर होता है। विशेषकर युवा इससे अधिक प्रभावित होते हैं। इसलिए सिनेमा की भूमिका राष्ट्र के निर्माण में सबसे महत्व की है। सिनेमा हमारे देश में मात्र मनोरञ्जन का मुख्य साधन ही नहीं है बल्कि यह पौराणिक, धार्मिक, सामाजिक, राष्ट्रवादी, आदर्शवादी और यथार्थपरक संदेशों को आम जन तक पहुंचाने का बहुत प्रभावी माध्यम है। इन विषयों पर विभिन्न कालखण्डों में फिल्मकारों ने फिल्में बनाकर समाज को हमेशा दिशा देने और मनोरञ्जन परोसने का प्रयास किया है।

यह प्रवृत्ति साहित्य, समाज और सामाजिक संवाद में सकारात्मक रूप से ग्रहण की जाने लगी है। सिनेमा में कला, सौंदर्यबोध के साथ भारतबोध को सहज रूप से स्वीकार किया जाने लगा है। भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में भारतीय फिल्मों ने जिस तरह से अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था, उसी प्रकार से स्वाधीनता प्राप्त होने के उपरान्त नवनिर्माण में भी उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। विगत ७५ वर्षों में अनेक यादगार फिल्मों ने लोगों में देशभक्ति भाव, शौर्य और देश के लिए बलिदान का भाव भरा है। फिल्मों के विषय स्वतंत्रता संघर्ष, आक्रमण और युद्ध, खेल, प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास, विद्रोह आदि रहे हैं, किन्तु सबके मूल में भारतीय होना और देश के प्रति कर्तव्य का भाव रहा है।

भारत में सिनेमा के आरंभिक काल में देशभक्ति फिल्मों की संख्या अधिक हुआ करती थी। भारत में फिल्म उद्योग स्वतंत्रता आंदोलन के समय उभरा। १९वीं शताब्दी के नाटक की तरह इस बात की प्रबल संभावना थी कि फिल्मों के माध्यम से देशभक्ति की भाव का संचार किया जा सकता है। देश की स्वाधीनता के बाद के तत्कालिक दस वर्षों के काल को भारतीय सिनेमा का स्वर्णिम दशक माना जाता है। इन वर्षों में सिनेमा के व्यावसायिकता, कलात्मकता और नियमन को लेकर आधारभूत समझदारी भी बनी जिसने आजतक भारतीय सिनेमा को संचालित किया है। यही कारण है कि सौ वर्षों से अधिक के इतिहास को खंगालते समय बीसवीं शताब्दी के पांचवे और छठवें दशक में बार-बार लौटना पड़ता है। बीसवीं सदी में छठवें दशक की लोकप्रिय फिल्मों ने तब के भारत की वास्तविकताओं की सही तस्वीर नहीं दिखाई क्योंकि तब फिल्म उद्योग राष्ट्रप्रेमी विचारों को साम्यवाद-समाजवाद के चादर में लपेट कर परदे पर उतारने में लगा हुआ था।

तत्कालिक सरकार ने फिल्मों के व्यापक महत्व को समझते हुए कई संस्थाएं स्थापित की और बडे़ पैमाने पर दिशा निर्देश जारी किये। स्वतंत्रता के बाद देशभक्ति से परिपूर्ण व अपने पैरों पर खडे़ होने की कोशिश में लगे भारत को दर्शाते हुए फिल्में बनीं। भारत-पाक और भारत-चीन युद्धों पर फिल्में बनीं। मनोज कुमार की क्रांति, पूरब-पश्चिम जैसी फिल्में भी आई, जिनमें भारतीयता का गौरवगान, महिमामंडन अपने अंदाज में हुआ। इनके साथ-साथ धार्मिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर भी कई फिल्में बनीं।

भारतीय सिनेमा का सूर्योदय

फ्रांस के पेरिस शहर के ग्रैंड होटल के ‘इंडियन रूम’ नामक कमरे में २८ दिसंबर, १८९५ को लूमियर बन्धु अपने फोटो मशीन को दुनिया के सामने प्रस्तुत किया था। छह माह बाद मुम्बई में चलती हुई फिल्मों का प्रदर्शन हुआ। कुछ दशकों बाद भारत वह देश हो गया जहां विश्व में सर्वाधिक फिल्में बनने लगीं। पश्चिम में १९९५ में सिनेमा के सौ वर्ष पूरा होने के उत्सव आयोजित हुए थे। वर्ष २०१२ में भारत ने अपने सिनेमा के शताब्दी उत्सव मनाया था।

भारत में सिनेमा का शताब्दी उत्सव का प्रमुख दिन ४ अप्रैल, जब राजा हरिश्चन्द्र के पोस्टरों से मुम्बई की दीवारें सजाई गई थीं या २१ अप्रैल जब दादा साहेब ने यह फिल्म कुछ विशेष दर्शकों को दिखाई, या फिर ३ मई, जब इसे जनता के लिए प्रदर्शित किया गया, कोई भी हो सकता है। वैसे कई लोग सखाराम भाटवाडेकर उपाख्य सावे दादा को भारतीय सिनेमा का जनक मानते हैं, जिन्होंने लूमियर बन्धुओं को देख कैमरा खरीदा और आसपास की तस्वीरें उतारने लगे। इसी प्रकार दादा साहेब फाल्के ने भी चित्र बनाये थे।

वर्ष १८७० की ३० अप्रैल को जन्मे घुंडीराज गोविन्द फाल्के उपाख्य दादा साहेब फाल्के ने करीब दो दशकों के अपने कॅरियर में ९५ फिल्मों और २६ लघु फिल्मों का निर्माण और निर्देशन किया था। ‘राजा हरिश्चंद्र’ (१९१३) के साथ ‘मोहिनी भस्मासुर’ (१९१३), ‘सत्यवान सावित्री’ (१९१४), ‘लंका दहन’ (१९१७), ‘श्री कृष्ण जन्म’ (१९१८), ‘कालिया मर्दन’ (१९१९) उनकी उल्लेखनीय कृतियां हैं। एक त्रासदी यह भी है कि उनकी अधिकतर फिल्मों के रील हमेशा के लिए हमने खो दिया है।

साहित्य और कला के विविध क्षेत्रों में शिक्षित-प्रशिक्षित दादा साहेब ने कथानक को तैयार करने तथा उसे प्रभावी मनोरञ्जन के साथ प्रस्तुत करने की विशिष्ट शैलियां विकसित की तथा उनके सानिध्य में पले-बढे़ कलाकारों और तकनीशियनों ने सिनेमाई यात्रा को आगे ले जाने में बड़ी भूमिका निभाई। दादा साहब फाल्के ने ‘राजा हरिश्चन्द्र’ फिल्म बनाकर भारत में फिल्म निर्माण की नींव रखी। यद्यपि उस समय की फिल्म मूक होती थीं, किन्तु उनके विषय भारतीयता से ओत-प्रोत होते थे। जिस समय फिल्मों का निर्माण शुरू हुआ, उस समय भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम छोटे-छोटे विरोध प्रदर्शनों और आन्दोलनों के रूप में मुखरित हो रहा था। देश भर में स्वतन्त्रता की आशा प्रबल हो गई थी। इसका प्रभाव फिल्मों पर भी पड़ा। देशभक्ति से भरी फिल्में खूब बनने लगी। वे फिल्में बडे़ प्रभावशाली ढंग से स्वतंत्रता का पाठ पढ़ाने लगी थीं।

सन् १९२० में बनी महाराष्ट्र फिल्म कम्पनी की फिल्म ‘सैरन्ध्री’, जिसका निर्देशन बाबूराव पेंटर ने किया था, राष्ट्र प्रेम को प्रस्तुत करने वाली पहली फिल्म थी। यद्यपि उस फिल्म को कड़ी सरकारी निगरानी में प्रदर्शित किया गया था। फिल्मकारों में देशभक्ति की ज्वाला इस तरह व्याप्त थी कि अंग्रेजी शासन की कठोर निगरानी के बावजूद भारतीय फिल्म निर्माता परोक्ष रूप से स्वाधीनता संग्राम में अपना योगदान देते रहते थे। स्वाधीनता आन्दोलन की मूक युग की सबसे उल्लेखनीय फिल्म ‘नेताजी पालकर’ थी। उसके निर्देशक वी. शान्ताराम और मुख्य कलाकार अनसुइया एवं गणपति बापरे थे। यह फिल्म वर्ष १९२७ में बनी थी। फिल्म में छत्रपति शिवाजी की भूमिका निभाने वाले कलाकार ने महाराष्ट्र सहित पूरे देश में स्वाधीनता आन्दोलन को तेज हवा दी थी। शुरू में इस फिल्म का नाम ‘बम’ रखा गया था, जिसमें महात्मा गांधी के व्यक्तित्व के समान पात्र दिखाया गया था। वह पात्र सामाजिक एकता का प्रतीक दिखाया गया था। बाद में फिल्म का शीर्षक बदलना पड़ा था।

इसी तरह खूब चर्चित फिल्म ‘खुदा का बंदा’ थी। उस फिल्म को लेकर भी अंग्रेजी शासन बहुत चौकन्ना था। देश में जैसे-जैसे देश में स्वतन्त्रता के लिए आन्दोलन तेज होता गया, फिल्म निर्माताओं ने भी स्वतंत्रता की अलख जलाने में अपना पूरा योगदान दिया। अब सवाक फिल्मों का दौर था। सुप्रसिद्ध निर्माता-निर्देशक अर्देशिर ईरानी ने सन् १९३१ में पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ को बनाया। यह फिल्म उनकी संस्था इम्पीरियल फिल्म कम्पनी में बनी थी, जिसमें उस समय के चर्चित कलाकार पृथ्वीराज कपूर, मास्टर विठ्ठल, डब्ल्यू. एम. खान, जुबैदा और जगदीश सेठी ने अभिनय किया था। यह फिल्म १४ मार्च, सन् १९३१ ई. को मुंबई के ‘मैजेस्टिक’ सिनेमा घर में प्रदर्शित हुई थी। न्यू थियेटर्स की फिल्म ‘चण्डीदास’ और सन् १९३६ ई. में बनी बॉम्बे टॉकीज की फिल्म ‘अछूत कन्या’ ने देश में राष्ट्रप्रेम की एक नई लहर पैदा कर दी। इसी समय देश में बोलती फिल्मों का निर्माण शुरू हो गया था। सन् १९३९ ई. में बनी ‘ब्रान्डी की बोतल’ और सन् १९४२ में बनी फिल्म ‘भक्त कबीर’ ने प्रच्छन्न रूप से स्वतन्त्रता आन्दोलन के संघर्ष की भावना को बल दिया।

महात्मा गांधी के छुआछूत अनुचित अभियान को समर्पित सन् १९४० ई. में रंजीत फिल्म कम्पनी ने ‘अछूत’ फिल्म का निर्माण किया। चन्दूलाल शाह के निर्देशन में बनी इस फिल्म ने छूआछूत पर करारी चोट करते हुए सारे भेदभाव मिटाकर राष्ट्र के स्वाधीनता संग्राम में एक जुट हो जाने का सन्देश दिया। वर्ष १९४० में महबूब खान के निर्देशन में बनी फिल्म ‘औरत’ में विदेशी जुल्म से लड़ने की भावना को बहुत ही प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया गया था। सन् १९४५ ई. में बनी फिल्म ‘हमराही’ और उस दौर की ‘नया संसार’, ‘रोटी’, ‘जीवन’, ‘पन्ना’ फिल्मों में अन्याय के विरुद्ध लड़ने और भाईचारे को प्रगाढ़ करने का संदेश दिया गया था।

देश के बंटवारे को लेकर भारतीय सिनेमा में कई फिल्मों का निर्माण हुआ है, जो बार-बार उस बंटवारे के दर्द का अहसास दिलाते हैं। दो समुदाय के लोगों ने इस बंटवारे में पैतृक भूमि, अपनी जडे़ं और सम्पत्ति खो दी, किन्तु सबसे बड़ी त्रासदी वो खून खराबा था, जिसका दर्द आज भी लोगों के दिलों में है। लाख डेढ़ लाख लोगों की मौत हुई थी। डेढ़ करोड़ लोग अपनी सर जमीन से कट गए थे, किन्तु हैरानी की बात यह थी कि १९४७ में ही मुम्बई में ११४ फिल्में बनी थीं। यह वर्ष ब्रिटिश राज की परतन्त्रता से स्वाधीनता का वर्ष था।

फिल्म सेंसरशिप धीरे-धीरे बेरहम हो गई थी। वह कानून जिसे ब्रिटिश सरकार के हितों को साधने के लिए १९१८ में बनाया गया था। आंकडे़ बताते हैं कि १९४३ के दौरान करीब २५ फिल्मों को रिलीज किए जाने से पहले कांटने-छांटने के लिए कह दिया गया था। जाहिर सी बात है, स्वाधीनता की लड़ाई पर देशभक्ति से भरी फिल्में बनाना मना था। फिर भी कुमार मोहन की ‘१८५७’ (१९४७) जैसी फिल्म किसी तरह प्रदर्शित हो गई थी। फिल्म बगावत की पृष्ठभूमि पर बनी एक लव स्टोरी थी जिसमें सुरैय्या और सुरेन्द्र थे। इसी तरह ज्ञान मुखर्जी एवं बॉम्बे टॉकीज की फिल्म ‘किस्मत’ (१९४३) जैसी क्रांतिकारी फिल्म सेंसर की कैंच से बच निकली थी। फिल्म में अशोक कुमार चोर बने थे।

यह फिल्म गांधी जी के भारत छोड़ो आन्दोलन के छह महीने बाद रिलीज हुई थी। वर्ष १९४३ में रामचन्द्र नारायण जी द्विवेदी उपाख्य कवि प्रदीप के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट निकला। यह वारंट भारत छोड़ो आन्दोलन के समर्थन में अप्रत्यक्ष रूप में शासन के विरुद्ध लिखे गाने को लेकर जारी किया गया था। यह गाना था – आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है दूर हटो ऐ दुनिया वालों, हिन्दुस्तान हमारा है। इसी गाने में आगे लिखा गया है ..शुरू हुआ है जंग तुम्हारा जाग उठो हिन्दुस्तानी, तुम न किसी के आगे झुकना जर्मन हो या जापानी।

दूसरे विश्व युद्ध (१९३९-१९४५) में भारत मित्र राष्ट्रों की ओर था और वास्तविक रूप में जर्मनी और जापान का शत्रु था। १९४२ में सिंगापुर और बर्मा के लड़खड़ाने के बाद भारत में जापानी आक्रमण की चिन्ता वास्तविक होने लगी। किन्तु अंग्रेज चलाक तरीके से समझते थे कि जंग (युद्ध) का मतलब स्वाधीनता संघर्ष है और विदेशी का उल्लेख गाने में अंग्रेजों के लिए किया गया है। फिल्म के इस गाने को इतनी लोकप्रियता मिली कि गीतकार प्रदीप को भूमिगत होना प‹डा था, ताकि देशद्रोह के आरोप में उन्हें गिरफ्तार न कर लिया जाए।

१९४६ में चेतन आनंद की नीचा नगर में ब्रिटिश शासन के दौरान अमीरों और गरीबों के बीच की खाई को दर्शाया गया था। मक्सिम गोर्की के नाटक ‘द लोएस्ट डेप्थस’ पर आधारित इस फिल्म में चेतन आनन्द की अभिव्यक्तिवादी शैली दृष्टिगत होती है। इससे पहले वी. शांताराम की मस्वतंत्रयाचा तोरन’ (स्वतन्त्रता का ध्वज, १९३१) में मराठा सम्राट शिवाजी पर केन्द्रित सिनेमा का निर्माण किया और बताया कि उन्होंने सिंहगढ़ किले में जीत की ध्वज लहराई थी। फिल्म सेंसर में उलझ गई।

सेंसर को ‘स्वतंत्रता’ जैसे शब्द से दिक्कत थी। फिर फिल्म के टाइटिल को ‘उद्याकल’ किया गया। कई बदलाव किए गए। तब जाकर फिल्म को प्रदर्शन के लिए अनुमति मिली। १९४७ में भारत के विभाजन से पहले और उसके दौरान की स्थिति पर दीपा मेहता की ‘अर्थ’ फिल्मी पर्दे पर दिखाया गया। खुशवंत सिंह के क्लासिक उपन्यास ‘ट्रेन टू पाकिस्तान’ पर आधारित इसी नाम से फिल्म बनाई गई थी। गुरिंदर चह्ना की मपार्टीशन’ फिल्म स्वाधीनता और विभाजन की कहानी पर आधारित है। कहा जाता है कि इसमें सच्ची घटनाओं का उल्लेख किया गया है।

१५ अगस्त, १९४७ को भारत की स्वाधीनता की घोषणा के बाद वजाहत मिर्जा ने शहीद (१९४८) फिल्म का लेखन किया और इसका निर्देशन रमेश सहगल ने किया। इस फिल्म का गीत ‘वतन की राह में वतन के नौजवां शहीद हो कमर जलालाबादी ने लिखा था। इसके बाद में सबसे अधिक सफल फिल्म सामाधि (१९५०) बनी। इसका निर्देशन भी रमेश सहगल ने किया था। कहा जाता है कि यह फिल्म नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज से जुड़ी सच्ची घटना पर आधारित थी।

उसी वर्ष आजाद हिन्द फौज पर ‘एक पहला आदमी नाम से एक और फिल्म आई। इसका निर्देशन निर्देशक विमल रॉय ने किया था। १९५२ में बंकिमचन्द्र चटर्जी के उपन्यास पर बनी फिल्म आनंद मठ आई। इसका निर्देशन हेमेन गुप्ता ने किया था हेमेन गुप्ता स्वतंत्रता सेनानी थे और वह वर्षों जेल में रहे। हेमेन गुप्ता फांसी से बच गए थे। बाद में उन्होंने फिल्म निर्माण की ओर कदम बढ़ाया। आनन्द मठ १० बड़ी फिल्मों में शुमार नहीं हुई। बड़ी फिल्मों में आन, बैजू बावरा, जाल तथा दाग थी जिनमें संगीत, रोमांस, सस्पेंस और सामाजिक ड्रामा था। १९४० और १९५० के दशक में सामाजिक, रोमांटिक, संगीत प्रधान, एक्शन, सस्पेंस, पौराणिक, देशभक्ति और राष्ट्रप्रेम की फिल्में बनी थीं।

राष्ट्रत्व और सामाजिक उद्देश्य

१९५१ में फिल्म इन्क्वायरी कमेटी ने फिल्म उद्योग से आह्वान किया कि वह राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान दें और सरकार को मजबूत करें। इस रिपोर्ट में सरकार ने उम्मीद जताई कि भारतीय सिनेमा राष्ट्रीय संस्कृति, शिक्षा और स्वस्थ मनोरञ्जन को केन्द्र में रखकर काम करेगा जिससे एक बहुआयामीय राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण हो सके। सरकार ने सिनेमा को नियन्त्रित करने के लिए आर्थिक नियन्त्रण और सेंसरशिप का भी सहारा लिया। स्वाधीनता के बाद फिल्मों को अपना जीवन मिला। नए गणराज्य की अपनी समस्याएं थीं और लोगों का ध्यान उसी ओर था। १९५३ में सोहराब मोदी ने ‘झांसी की रानी’ फिल्म बनाई।

१९५३ में ही शीर्ष पर नन्द लाल जसवन्त लाल की फिल्म ‘अनारकली’ थी। इसी तरह १९५६ में बंकिमचन्द्र चटर्जी के ऐतिहासिक उपन्यास पर बनी ‘दुर्गेश नन्दिनी’ फिल्म भी दर्शकों के सामने प्रदर्शित हुई। भारत के लिए राजनीतिक स्वतन्त्रता अकेली चुनौती नहीं थी। इससे पहले १९४६ चेतन आनन्द की फिल्म ‘नीचा नगर’ में यह दिखाया गया था कि किस तरह धनवान लोग गांव में रहने वाले गरीबों का शोषण करते हैं। इस फिल्म को कांस फिल्म समारोह में प्रवेश मिला। १९५३ में ख्वाजा अब्बास ने ‘राही’ फिल्म का निर्देशन किया। इस फिल्म में असम के चाय बगानों में अंग्रेजी मालिकों द्वारा मजदूरों के शोषण को दिखाया गया था।

लाल बहादुर शास्त्री की प्रेरणा से बनी एवं मनोज कुमार के अभिनय से सजी फिल्म ‘शहीद’ (१९६५) और चेतन आनन्द की ‘हकीकत’ की सफलता के बाद देशप्रेम की फिल्में मुख्यधारा की फिल्मों में शामिल हो गई थी। अभिनेता हरिकिशन गिरि गोस्वामी उपाख्य मनोज कुमार ने फिल्मों में सकारात्मक और देशभक्ति के विचारों का काम सम्भाला। इसीलिए उन्हें ‘भारत कुमार’ का उपनाम भी मिला। उन्होंने फिल्म ‘शहीद’ में क्रान्तिकारी भगत सिंह की भूमिका की।

भगत सिंह के जीवन पर बनी यह देशभक्ति की सर्वश्रेष्ठ फिल्म थी जिसकी कहानी स्वयं भगत सिंह के साथी बटुकेश्वर दत्त ने लिखी थी। इस फिल्म में अमर शहीद राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ के गीत थे। उनकी उपकार जैसी फिल्मों ने फौज की नौकरी छोड़ चुके व्यक्ति के काला बाजारी और नकली दवाओं के जाल में उलझने के खतरों को दर्शाया। पूरब और पश्चिम (१९७०) में उन्होंने पश्चिम में भारतीय संस्कृति की अलख जलाये रखी। ७० के दशक तक भारत को पश्चिम में पिछड़ा और प्रतिगामी देश समझा जाता था।

मनोज कुमार ने पूरब और पश्चिम में भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता को सामने रखा। इस दौर की सबसे सफल फिल्म महबूब खान की ‘मदर इंडिया’ (१९५७) रही। इस फिल्म में गांव की गरीब महिला राधा (नरगिस अभिनीत) के दो बच्चों के पालने और धूर्त साहूकार के विरुद्ध संघर्ष को दिखाया गया था। १९५५ की सबसे सफल फिल्म राज कपूर की ‘श्री ४२०’ थी। इस फिल्म में उपेक्षित वर्ग को शोषित करने की विकृति को दिखाया गया था। १९५९ में ऋषिकेश मुखर्जी ने ‘अनाड़ी’ फिल्म बनाई। इस फिल्म के हीरो थे राज कपूर इस फिल्म में शहरों में घातक जहरीली दवाइयों के भयावह परिणाम दिखाए गए थे। स्वतंत्र भारत की समस्याओं को फिल्मों में जगह मिली।

१९६० के दशक में देश के प्रथम प्रधानमन्त्री के विदेश केन्द्रित गलत नीतियों के कारण यह महसूस होने लगा कि भारत को केवल आन्तरिक चुनौतियों का ही सामना नहीं करना है। सैन्य दृष्टि से भी भारत को तैयार रहना है। १९६० में गोवा मुक्ति संग्राम, वर्ष १९६२ में चीन, १९६५ और १९७१ में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया। इन अवसरों पर भारतीय फिल्म निर्माताओं ने राष्ट्रीय भावना को जगाने वाली फिल्मों का निर्माण किया।

मनोज कुमार ने ‘उपकार’, ‘पूरब पश्चिम’ ‘क्रान्ति’ जैसी फिल्में बनाकर विश्व पटल पर देश की भावना का सन्देश दिया। ‘हकीकत’ फिल्म में चीन के साथ युद्ध का चित्रण किया गया। ‘शहीद’, ‘आग’, ‘बरसात’, ‘अपना देश’ जैसी फिल्में अपने दौर की प्रसिद्ध फिल्में रहीं। उसी कालखण्ड में देश की स्वतन्त्रता संग्राम में अपनी आहुति देने वाले रणबांकुरों के जीवन चरित्र पर फिल्में बनी। शहीद भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, महात्मा गांधी इत्यादि के ऊपर फिल्मों का निर्माण किया गया।

१९८४ में बनी फिल्म ‘गांधी’ ने फिल्मी लोकप्रियता के सारे प्रतिमान तोड़कर सफलता प्राप्त की। आमिर खान की ‘लगान’ अंग्रेजी गुलामी के विरुद्ध संघर्ष, ‘शहीद भगत सिंह’ देशभक्ति और ‘बॉर्डर’ पाकिस्तानी षड्यन्त्र को उठाने वाली फिल्में हैं। इन युद्धों से हम, शौर्य, देशभक्ति और बलिदान को लेकर सचेत हुए। उसके बाद से अनेक देशभक्ति फिल्में आईं। इनमें हकीकत (१९६४), हमसाया (१९६८), प्रेम पुजारी (१९७०), ललकार (१९७२), हिन्दुस्तान की कसम (१९७३), विजेता (१९८२) और आक्रमण (१९७५) शामिल हैं।

अपने समय के मुताबिक प्रहार (१९९१), बॉर्डर (१९९७) और एलओसी करगिल (२००३), टैंगो चार्ली (२००५), १९७१ (२००७) शौर्य (२००८), गाजी अटैक (२०१७), राग देश (२०१७), उरी द सर्जिकल स्ट्राइक (२०१९), केसरी (२०१९), ताण्हाजी: द अनसंग वॉरियर (२०२०) और भुज: द प्राइड ऑफ इंडिया (२०२१) जैसी प्रमुख देशभक्ति फिल्में बनीं। इन फिल्मों से साधारण भारतीय लोगों के मन में सेना के प्रति सम्मान बढ़ा।

देशभक्ति के प्रति फिल्मकारों का आकर्षण बरकरार है और यह इस बात से साबित होता है कि वर्ष २००२ में भगत सिंह के बारे में तीन हिन्दी फिल्मों का निर्माण किया गया। ये फिल्में राजकुमार संतोषी की ‘द लिजेंड ऑफ भगत सिंह’, गुड्डू धनोवा के निर्देशन में बनी ‘२३ मार्च : शहीद’ और सुकुमार नायर की ‘शहीद-ए-आजम’ है। २००४ में विख्यात निर्देशक श्याम बेनेगल की फिल्म ‘नेताजी सुभाष चन्द्र बोस: द फॉर्गाटन हीरो’ और चटगांव शस्त्रागार विद्रोह (१९३०-३४) पर आधारित आशुतोष गोवारिकर की फिल्म ‘खेले हम जी जान से’ (२०१०) भी सिनेमा घरों में प्रदर्शित हुई।

इसी सिलसिले को आगे बढ़ाती हुई तेलुगू, तमिल, मलयालम, हिन्दी और कन्नड़ भाषा की फिल्म ‘सई रा नरसिम्हा रेड्डी’ (२०१९) स्वतंत्रता संग्राम की अमर गाथाएं कहती हैं। यह फिल्म नरसिम्हा रेड्डी के जीवन पर आधारित है, जिन्होंने १८५७ की क्रान्ति के १० साल पहले अपने राज्य उयालपाड़ा से स्वाधीनता का शंखनाद किया था।

उदारीकरण के पश्चात स्थिति में बदलाव आया, जिसमें सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में प्रदर्शन ने भारत को वैश्विक स्तर पर उदीयमान स्थान दिलाया। ७० के दशक के बाद से अमेरिका और ब्रिटेन जैसे पश्चिम के औद्योगिक देशों में जाने वाले भारतीय नागरिकों की संख्या में वृद्धि हुई है। इसने सुदूर राष्ट्रवाद की भावना के उदय का मार्ग प्रशस्त किया, जिसके द्वारा भारतीय अपनी पहचान पर गर्व करने लगे। आई लव माई इंडिया (परदेस १९९७) जैसे गीतों ने इस भावना को बरकरार रखा। लगान (२००१), चक दे इंडिया (२००७), भाग मिल्खा भाग (२०१३), मैरी कॉम (२०१४), एमएस धोनी: द अनटोल्ड स्टोरी (२०१६), दंगल (२०१६), सुल्तान (२०१६) और साइना (२०२१) जैसी अनेक फिल्मों ने देशभक्ति की भावना जगाने के लिए खेलों का सहारा लिया।

इस सम्बन्ध में २९ जून, १९११ में कोलकाता में आईएफए शील्ड मैच में मोहन बगान की ईस्ट यॉर्कशायर रेजिमेंट पर जीत की घटना पर आधारित अरूण रॉय की बंगाली फिल्म ‘इगारो’ या ‘द इमॉर्टल इलेवन’ (२०११) का उल्लेख भी किया जाना चाहिए। यह किसी ब्रिटिश टीम पर किसी भारतीय फुटबॉल क्लब की पहली जीत थी। इस घटना के शताब्दी वर्ष के अवसर पर आई यह फिल्म उसके प्रति श्रद्धाञ्जलि स्वरूप थी।

भारत का इतिहास शासकों की सिंहासन और जमीन के लिए युद्धों का नहीं है, बल्कि धर्मों के बीच युद्धों का है। बीसवीं सदी के ७०, ८० और ९० के दशक में बनी ऐतिहासिक फिल्मों में जबरदस्ती दर्शकों पर लादे गए धार्मिक एकता को दिखाया जाता था, सेक्लुरिज्म के नाम पर विकृत नैरेटिव बनाने के काम में भी फिल्मों का दुरुपयोग हुआ किन्तु देश में राष्ट्रत्व के भाव के जागरण के पश्चात फिल्म निर्माताओं में विश्वास आया है कि अपनी बातों को सही तरीके से दिखाने में कोई समस्या नहीं है। अब फिल्में साम्यवादी नीतियों से मुक्ति की ओर अग्रसर हो रही हैं। फिल्मों में चरित्रों को वास्तविकता से प्रदर्शित किया जाने लगा है। पद्मावत में अलाउद्दीन खिलजी का चित्रण, पानीपत फिल्म में अहमद शाह अब्दाली, केसरी में सिख सैनिकों की बहादुरी और ताण्हाजी द अनसंग वॉरियर की पटकथा ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं।

स्वाधीनता के उमंग भरे दिनों में कुछ फिल्मकारों ने भविष्य के व्यापक भ्रष्टाचार और सामाजिक अन्याय का पूर्व अनुमान कर लिया था। चीन के आक्रमण और नेहरू के निधन के बाद भारतीय समाज और सिनेमा में परिवर्तन आए। सपनों की दुनिया से निकलकर यथार्थ में आने के प्रतीक स्वरूप आप चेतन आनन्द की ‘हकीकत’ और बिमल राय की ‘बंदिनी’ को मान सकते हैं।

इसके साथ २७ डाउन (१९७४), आक्रोश (१९८०), अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है (१९८०), अर्ध सत्य (१९८३), अर्थ (१९८२), अरविन्द देसाई की अजीब दास्तान (१९७८), भूमिका (१९७७), बाजार (१९८२), चक्र (१९८१), दिशा (१९९२), दृष्टि (१९९०), द्रोह काल (१९९४), दुविधा (१९७३), एक दिन अचानक (१९८९), एक डॉक्टर की मौत (१९९०), गरम हवा (१९७४), दस्तक (१९७०), छोटी सी बात (१९७६), गाइड (१९६५), आंधी (१९७५), इज्जत (१९८७), इन कस्टडी (१९९४), कलयुग (१९८१), कथा (१९८३), कमला की मौत (१९८९), किस्सा कुर्सी का (१९७८), मंडी (१९८३), मासूम (१९८३), मौसम (१९७५), मिर्च मसाला (१९८६), नमकीन (१९८२), अंकुर (१९७४), निशांत (१९७५), पार (१९८४), सतह से उठता आदमी (१९८०), रेनकोट (२००४), जल (आई) (२००५), उ‹डान (२०१०), ए वेडनेस डे (२००८) जैसे यथार्थवादी फिल्में प्रतीक मात्र हैं। जो की अभारतीय विचार व राष्ट्र विचार विरोधी दर्शन को प्रसारित करने में सफल हुई।

फिल्म निर्माता बासु चटर्जी ने भी मध्यमवर्गीय जीवन पर केन्द्रित ‘पिया का घर’ और ‘रजनीगंधा’ जैसी फिल्मों का निर्माण किया। इसी प्रकार कला और व्यावसायिक सिनेमा को एकीकृत करनेवाले एक और फिल्म निर्माता गुरुदत्त थे जिनकी फिल्म प्यासा (१९५७) टाइम पत्रिका की सार्वकालिक १०० सर्वश्रेष्ठ फिल्मों की सूची में थी। रितुपर्णो घोष की उत्सव (२०००) और दहन (१९९७), मणिरत्नम का ‘युवा’ (२००४), नागेश कुकुनूर का ‘३ दीवारें’ (२००३) और ‘डोर’ (२००६), मनीष झा की मातृभूमि (२००४), सुधीर मिश्रा की ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ (२००५), जाहु बरुआ की मैंने गांधी को नहीं मारा (२००५), पान नलिन की ‘घाटी’ (२००६), ओ’नीर की ‘माई ब्रदर… निखिल’ (२००५) और ‘बस एक पल’ (२००६), अनुराग कश्यप की ब्लैक फ्राइडे (२००७), विक्रमादित्य मोटवाने की ‘उदय’ (२००९), किरण राव की ‘धोबीघाट’ (२०१०), अमित दत्ता की सोनचिरैया (२०११) और आनन्द गांधी की ‘शिप ऑ़फ थीसस’ (२०१३) जैसी फिल्में कला और व्यावसायिक दोनों के मिश्रित रूप से सामने आने लगे।

शम्मी कपूर अभिनीत ‘जंगली’ से रंगीन युग प्रारंभ हुआ जिसमें राजकपूर जैसे जागरूक फिल्मकार भी ‘राधा’ और मरंग’ में डूबकर संगम (१६६४) बनाने लगे। भारतीय सिनेमा के हर दौर में सभी प्रकार की फिल्में बनती रही हैं और रंग, राधा के दौर में भी तीसरी कसम’, ‘भुवनशोम’, ‘चेतना’ इत्यादि बनीं परंतु स्वाधीनता के बाद वाले दशक की धार, बाद में किसी दशक में देखने को नहीं मिली। स्वाधीनता के पहले भारतीय सिनेमा में राष्ट्रप्रेम और सामाजिक उद्देश्यों के स्वर मुखर थे और विदेशी शासन के सेंसर की आंखों में धूल डाली जाती थी। इतिहास आधारित विषयों में और धार्मिक आख्यानों की फिल्मों में भी संदेश होते थे। स्वाधीनता के तत्काल बाद भी सामाजिक संदेश देने वाली फिल्में बनती रहीं और उनका असर भी व्यापक था। शांताराम की ‘दहेज’ के प्रदर्शन के बाद कुछ प्रांतों में दहेज विरोधी कानून बनाए गए। बिमल राय की दो बीघा जमीन’ को देश-विदेश में सराहा गया।

स्वाधीनता के बाद आयोजित अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के कारण १९५१ में हमारे फिल्मकारों को यूरोप के नव-यथार्थवादी सिनेमा ने बहुत प्रभावित किया। परिणामस्वरूप जिया सरहदी की ‘हम लोग’, ‘फुटपाथ’ और राजकूपर की ‘बूटपॉलिश’ तथा केयू अब्बास की गीत विहीन ‘मुन्ना’ बनीं। ‘आवारा’(१९५१) फिल्म से विदेशों में हिन्दी फिल्मों का बाजार खुला। शशिधर मुखर्जी की एंटी हीरो ‘किस्मत’ का सफल प्रदर्शन हुआ था और उसी छवि की अन्यतम अभिव्यक्ति अमिताभ अभिनीत फिल्मों में हुई। अमिताभ ने एंटी हीरो छवि को स्थापित कर दिया। ठीक इसी तरह १९७३ में अमिताभ अभिनीत ‘जंजीर’ और राजकपूर की किशोरवय प्रेमकथा ‘बॉबी’ का प्रदर्शन हुआ। इस युग ने भारतीय सिनेमा को विशुद्ध पलायनवादी बना दिया था।

इसी काल खंड में गॉसिप की रंगीन पत्रिकाओं का सफल प्रकाशन प्रारंभ हुआ और सितारों के बारे में सच्ची-झूठी घटनाओं के प्रकाशन ने एक विनाशकारी धुंध को जन्म दिया। फिल्म पर गंभीर विचार और समालोचना का अंत भी हो गया। आक्रोश के इस सिनेमा ने दर्शक दीर्घा में समाजवाद को स्थापित करने का प्रयास किया गया। नीचे के दर्शक बालकनी में पहुंच गए और बालकनी के दर्शक घर बैठ गए जिसके कारण समानांतर और मध्यमवर्गीय सिनेमा समाप्त हो गया।

फिल्म निर्माण के समय प्रवासी भारतीय दर्शकों पर भी नजर रहने लगी है। इस पीढ़ी को कोई आक्रोश नहीं था। उन्होंने भ्रष्टाचार को जीवन शैली के एक प्रतिपादित सत्य के रूप में ग्रहण किया। उन्हें विशुद्ध मनोरञ्जन चाहिए क्योंकि उन्हें इतिहासबोध या सौंदर्यबोध या साहित्य बोध या भारत बोध से कोई लेना देना नहीं है। सूरज बडजात्या की हम आपके हैं कौन’ ने सामाजिक प्रतिबद्धता वाले सिनेमा को अनावश्यक सिद्ध कर दिया।

इस दौर में ‘बाजार’ ने कुछ ‘रईसों’ को जन्म दिया था और उन्हें इसी तरह का मनोरञ्जन पसन्द था। ‘बाजार’ की शक्ति हर कालखण्ड में महत्वपूर्ण रही हैं परन्तु इस दौर में उसने दुकान के साथ ग्राहक को भी जन्म दिया है। इसी दौर में अप्रवासी भारतीय दर्शकों की वजह से डॉलर सिनेमा, रुपया सिनेमा पर भारी पड़ने लगा। शिफॉन, स्विटजरलैंड और फीलगुड का दौर दर्शकों का नया स्वाद बन कर उभरा। करीब एक दशक पहले शेखर कपूर ने कहा था, ‘भविष्य में स्पाइडरमैन अपना मास्क उतारेगा तो कोई एशियाई या भारतीय चेहरा नजर आ सकता है।’ वैश्वीकरण के दौर में हम उस दिशा में बढ़ रहे हैं। माई नेम इज कलाम के निर्देशक नीला माधव पंडा ने अपनी नई फिल्म के लिए रिचर्ड गेरे को साइन किया है। यह सच्चाई है कि हिन्दी समेत भारतीय भाषाओं की फिल्मों ने विदेशों में पैठ बनाई है।

शुरुआत तो छठे दशक में ही हो चुकी थी, जब राजकपूर की आवारा तत्कालीन सोवियत संघ और चीन के आम दर्शकों को पसन्द आई थी। चेतन आनन्द की नीचा नगर कान फिल्म समारोह में सम्मानित हुई थी। सत्यजीत राय की प्रभावशाली पाथेर पांचाली के दौर से भारतीय फिल्मों की कलात्मक गुणवत्ता पर ध्यान दिया जाने लगा था। विभिन्न देशों में निरन्तर चल रहे भारतीय फिल्म समारोहों और पुनरावलोकनों से साफ जाहिर होता है कि भारतीय फिल्मों में विदेशी दर्शकों की रुचि बढ़ी है।

अमेरिका और इंग्लैंड जैसे देशों में भारतीय फिल्मों को बॉक्स ऑफिस लिस्ट में जगह मिल जाती है। कई बार भारतीय फिल्में श्रेष्ठ १० में भी आ जाती है। मध्यपूर्व के खाड़ी देशों में भारतीय फिल्में बहुत लोकप्रिय हैं। हर साल विभिन्न फिल्म सम्मान समारोह किसी नए देश में होता है। इन समारोहों में केवल भारतीय दर्शक ही नहीं पहुंचते। भारतीय दर्शकों के साथ उनके विदेशी मित्र और परिचित भी फिल्मों के प्रदर्शन में सहभागी होते हैं।

विश्व सिनेमा में भारतीय सिनेमा स्थानीय विशेषताओं के साथ टिका रहा और समय के साथ मजबूत हुआ है। विदेशी फिल्मों में भारतीय कलाकारों की उपस्थिति शशि कपूर के समय से यह सिलसिला चला आ रहा है। पहले की तरह उन्हें मात्र भारतीय पहचान के किरदार नहीं दिए जा रहे हैं।

द अमेजिंग स्पाइडरमैन (२०१२) में भारतीय अभिनेता इरफान खान, द लीग ऑफ एक्स्ट्राऑर्डिनरी जेंटलमैन’ (२००३), में नसीरुद्दीन शाह, मिशन इम्पॉसिबल-४ (२०११) में अनिल कपूर ‘द मिस्ट्रेस ऑफ स्पाइसेज’ (२००५), ‘द लास्ट लीजन’ (२००७), ‘द प्रोवोक्ड’ (२००६), और ‘द पिंक पैंथर’ (२००६) में ऐश्वर्या राय बच्चन, नॉट विदाउट माई डॉटर’ (१९९१) और ‘वर्टिकल लिमिट’ (२०००) में रोशन सेठ, ‘ट्रिपल एक्सः रिटर्न ऑ’ जेंडर केज’ (२०१७) में दीपिका पादुकोण, ‘बैंड इट लाइक बेकहम’ (२००२), ‘द बिग सिक’ (२०१७) में ‘सिल्वर लाइनिंगस प्लेबुक’ (२०१२) में अनुपम खेर थे।

दिवंगत इरफान खान ने इस क्षेत्र में केन्द्रीय भूमिकाएं तो ओमपुरी ने लगभग २० फिल्मों में मुख्य भूमिका अभिनीत की है। यह सिलसिला सन् १९४० के बाद से शुरू हुआ था। जब हमारे एक साधारण कलाकार साबू को लेकर हॉलीवुड के निर्माता ने ‘एलीफैंट ब्वाय’(१९३७) नामक सफल फिल्म बनाई थी। पांचवें दशक में जेम्स आइबरी और इस्माइल मर्चेंट ने कुछ फिल्में शशिकपूर को लेकर बनाई थीं। स्टीवन स्पिलबर्ग ने अमरीश पुरी को अपनी फिल्म ‘टेंपल ऑफ डुम’(१९८४) में प्रमुख खलनायक की भूमिका दी थी। यहां गौरतलब है कि गैरभारतीय दर्शकों के बीच कोई भी भारतीय फिल्म अपने कटेंट से ही जगह बना सकती है। निश्चित ही विदेशी दर्शकों की अपेक्षाएं भारतीय दर्शकों से अलग हैं।

अपनी सभ्यता, संस्कार, समावेशी और समरसतानित नैतिक मूल्यों पर आधारित और जिजीविषा से भरपूर समाज होने के कारण भारत ने विदेशी फिल्म निर्देशकों को भी अपनी ओर आकर्षित किया है। पश्चिमी सिनेमा ने अनेकों अच्छी कहानियों के लिए भारत के दरवाजों पर आमद दी है। ‘द बेस्ट एक्सोटिक मेरीगोल्ड होटल’ (२०११), ‘द नेमसेक’ (२००६), ‘द दार्जिqलग लिमिटेड (२००७), डेआना जोंस एंड टेम्पल ऑ़फ डूम’ (१९८४), ‘सेवेन इयर्स इन तिब्बत’ (१९९७), ‘कैरी अप ऑन द खैबर’ (१९६८), ‘गांधी’ (१९८२), ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ (२००८), ‘मानसून वेडिंग’ (२००१), ’ब्राइड एंड प्रेज्युडियस’ (२००४), ‘लाइफ ऑफ पाई’ (२०१२), ‘बियॉन्ड द क्लाउड्स’ (२०१७) जैसी फिल्मों को भारतीयता के पाश्र्व पर बनी सबसे बेहतरीन फिल्मों में से एक माना जाता है।

भारत बोध की ओर सिनेमा की वापसी

वर्तमान समय में यद्यपि समाज की रुचि के साथ-साथ फिल्मों के विषय बदल रहे हैं, तकनीक बदल रही है, प्रस्तुति का तौर-तरीका बदल रहा है, किन्तु राष्ट्रवादी भावना ज्यों की त्यों बनी हुई है। बाहुबलि (२०१५) की सफलता ने बताया है कि भारतीय कहानियों और भारतबोध के आधार पर बेहतर फिल्म भी बनाई जा सकती है। दादा साहेब फालके के भारत की आत्मा को पर्दे पर लाने के भाव का पुनर्जागरण हुआ लगता है।

सिनेमा संकुल (मल्टीप्लेक्स) के बाद अब ओटीटी युग की शुरुआत हो चुकी है। देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी को फिल्मों के माध्यम से निभाने वाले फिल्मकारों ने सामाजिक दायित्व को भी भली भांति पूरा किया है। देश के सामाजिक एवं आर्थिक पक्ष, अशिक्षा, कुपोषण, बाल विवाह, राष्ट्रीय एकता, सुरक्षा, भ्रष्टाचार, इत्यादि विषयों को भी चित्रित कर रहे हैं। ये फिल्में सामाजिक समरसा, देश प्रेम, शौर्य को बढ़ाने में सहायक हो रही हैं। देश के महानगरों से लेकर छोटे-छोटे शहरों तक भी श्रेष्ठ तकनीक वाले थिएटर खुल गए हैं।

ओटीटी के माध्यम से सिनेमा लोगों की मुट्ठी में कैद हो गया है। अब खुली अर्थव्यवस्था, वैश्वीकरण, शहरी जीवन संस्कृति की बदलती शैली, होम थिएटर इंटरनेट आदि के कारण दुनिया भर की फिल्में देखी जा रही हैं। इन सब के कारण दर्शक उत्तम तकनीक और स्पेशल इफेक्ट का उपयोग करके बनाई गई फिल्में भी चाव से देखने लगे हैं। फिल्म इंडस्ट्री में भी काफी बदलाव हुए हैं। फिल्मों के निर्माण का खर्च सौ करोड़ तक बढ़ गया और उनसे तीन-चार गुना रुपयों की कमाई होने लगी है। फिल्मों की गुणवत्ता के स्थान पर इन आंकड़ों को प्रसार माध्यमों में अधिक महत्व मिलने लगा है।

इस बढ़ी हुई कमाई से निर्माण का खर्च, प्रमोशन, मार्केटिंग का खर्च इत्यादि सब कुछ घटाने के बाद जो शेष रहता है उसे सही मायने में कमाई कहा जाना चाहिए, परन्तु इस बात पर कोई अधिक ध्यान नहीं देता। यह फिल्म व्यवसाय की सफलता जरूर होगी, परन्तु कला की असफलता होगी। भारतीय चित्र साधना का यह फिल्म महोत्सव कला को महत्व देने और दिलवाने की ओर है। हमारा उद्देश्य भारतबोध की ओर सिनेमा की वापसी का है। भारत का सिनेमा, भारतीय मूल्यों का संवाहक बने। भारतीय सिनेमा दुनिया के सामने आदर्श बने।

नई पीढ़ी को फिल्म के माध्यम से राष्ट्र के पुनरुत्थान के कार्य के लिए प्रेरित करना, वर्तमान के सिनेमा जगत को उनके राष्ट्र के प्रति दायित्व का अहसास करवाना और समाज में स्वस्थ मनोरञ्जन और समाज उपयोगी सिनेमा के प्रति रुचि उत्पन्न करना भारतीय चित्र साधना, चित्र भारती एवं चित्र साधना समारोहों का लक्ष्य है।

 

साभार: चित्र जगत भारत बोध