हिन्दी फिल्मों के सौ वर्ष से अधिक के इतिहास पर नजर डालें तो इसके आरंभिक दौर को फिल्मों के भक्तिकाल के तौर पर रेखांकित किया जाना चाहिए। उस दौर में पौराणिक पात्रों को लेकर सैकड़ों फिल्में बनीं। उस दौर में फिल्मों में भगवान को दिखाने का चलन था। यह अकारण नहीं है कि जब हिन्दी फिल्मों में वामपन्थी लेखकों या फिल्मकारों का दबदबा हुआ तो भक्ति और भगवान छूटते चले गए। किन्तु उस दौर में भी या उस दौर के बाद भी जब भी किसी धार्मिक चरित्र को केन्द्र में रखकर फिल्म बनी तो अत्यन्त सफल रही। जय सन्तोषी मां से बेहतर उदाहरण कोई हो नहीं सकता है। इस फिल्म ने सफलता के सारे कीर्तिमान तोड़ दिए थे। भारतीय फिल्मों की बात करें तो हमें दादा साहब फाल्के का स्मरण होता है।
महाराष्ट्र के नासिक जिले के त्रयम्बकेश्वर के एक पुजारी परिवार में ३० अप्रैल, १८७० को एक लड़के का जन्म हुआ। उसके पिता अपने बेटे को संस्कृत पढ़ाकर पुजारी बनाना चाहते थे। इस बालक का नाम था धुंडीराज गोविन्द फाल्के। जब उसके पिता की मुम्बई (तब बाम्बे) में नौकरी लगी तो वो अपने पिता के साथ नासिक से वहां आ गया। सरकारी नौकरी मिल गई। स्वतन्त्रता आन्दोलन के प्रभाव में नौकरी छोड़ दी और फोटोग्राफी करने लगा। उसकी रुचि को देखकर कुछ मित्रों ने उसको फोटोग्राफी सीखने के लिए जर्मनी भेज दिया। वहां से १९०९ में वापस लौटा तो बीमारी की वजह से भले ही आंखों की रोशनी चली गई, किन्तु सपने आकार लेने लगे थे। वर्ष भर चला उपचार के बाद जब आंखों की रोशनी लौटी तो वो एक फिल्म देखने गए जिसका नाम था – द लाइफ ऑफ क्राइस्ट। इस फिल्म को देख तो रहे थे किन्तु उनके दिमाग में राम और कृष्ण की कथा चल रही थी। अगले दिन वो अपनी पत्नी के साथ इसी फिल्म को फिर से देखने पहुंचे। पत्नी ने उनको कृष्ण के चरित्र पर फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया। पत्नी ने अपने गहने गिरवी रखे और उससे मिले पैसे को लेकर फाल्के लन्दन गए। वहां से सिनेमेटोग्राफी सीखकर वापस लौटे।
अब अपने सपने को साकार करने का समय था। पहले कृष्ण और फिर राम पर फिल्म बनाने की कोशिश की किन्तु संसाधन के अभाव में इसको छोड़कर राजा हरिश्चन्द्र की कहानी पर काम शुरू कर दिया। महिला कलाकार मिलने में मुश्किल हो रही थी। विज्ञापन के बावजूद कोई महिला अभिनय के लिए तैयार नहीं हो रही थी। निराशा बढ़ती जा रही थी। पास की दुकान में चाय पीने गए। वहां चाय वाले लड़के, सालुंके पर उनकी नजर पड़ी को आंखें चमक उठीं। उस लड़के को तारामती के रोल के लिए तैयार कर लिया। इस तरह भारतीय फिल्म में एक पुरुष ने पहली अभिनेत्री का रोल किया।
‘राजा हरिश्चन्द्र’ फिल्म बन गई। ३ मई, १९१३ को बॉम्बे के कोरोनेशन हॉल में उसका प्रदर्शन हुआ। फिल्म लगातार बारह दिन चली। १९१४ में लन्दन में प्रदर्शित हुई। इनकी दूसरी फिल्म भस्मासुर मोहिनी में नाटकों में काम करने वाली कमलाबाई गोखले ने अभिनय किया। कमलाबाई को फिल्म में अभिनय के लिए उस वक्त फाल्के साहब ने आठ तोला सोना, दो हजार रुपये और चार साड़ियां दी थीं। इसके बाद इन्होंने कृष्ण जन्म बनाई। कहते हैं कि इस फिल्म ने इतनी कमाई की कि टिकटों की बिक्री से जमा होने वाले सिक्कों को बोरियों में भरकर ले जाना पड़ता था।
सफलता के बाद इनको फाइनेंसर मिल गया और उन्होंने हिन्दुस्तान फिल्म कम्पनी बनाई। किन्तु पार्टनर से निभी नहीं तो सब कामकाज छोड़कर बनारस जाकर नाट्य लेखन में जुट गए। फिर नासिक लौटे और सेतुबंध नाम की फिल्म बनाई। इस बात का उल्लेख मिलता है कि फाल्के साहब ने अपने जीवन काल में करीब नौ सौ लघु फिल्में और बीस फीचर फिल्में बनार्इं। १६ फरवरी, १९४४ को नासिक में भारतीय फिल्मों के जनक दादा साहब फाल्के का देहावसान हो गया।
दादा साहब ने जो स्वप्न देखा था वो साकार होने लगा था। केवल रामकथा को केन्द्र में रखकर अब तक सौ से अधिक फिल्मों का निर्माण हो चुका है। मूक फिल्मों के दौर में १९१७ में दादा साहब फाल्के ने लंकादहन के नाम से एक फिल्म बनाई थी। कहना न होगा कि जब लंकादहन के प्रसंग की चर्चा होगी तो रामकथा के अन्य प्रसंग भी इसमें आते चले जाते हैं। इस फिल्म की सफलता के साथ तो कई किवदंतियां भी जुड़ी हुई हैं।
मद्रास (अब चेन्नई) में ये फिल्म इतनी हिट रही थी कि इसकी कमाई के पैसों को बैलगाड़ी में भरकर ले जाना पड़ता था। उस दौर में एक और फिल्मकार हुए जिनका नाम था श्रीनाथ पाटणकर। इन्होंने १९१८ में मराम वनवासफ के नाम से एक ऐतिहासिक फिल्म बनाई। इस बात का उल्लेख मिलता है कि पाटणकर की कंपनी फ्रेंड्स एंड कंपनी ने इस फिल्म को करीब २५ हजार फीट के रील में शूटिंग की थी। इसको दर्शकों को धारावाहिक के रूप में दिखाया गया था और दर्शकों के लिए एक विशेष प्रकार का टिकट भी बनाया गया था। जब भी इस फिल्म का प्रदर्शन होता था तब उसके पहले राम की महिमा का बखान करने वाले विशेष प्रकार के गीत-संगीत का कार्यक्रम होता था।
उसी दौर में सीक्वल का भी चलन हिन्दी फिल्मों में शुरू हो गया था और पाटणकर ने राम वनवास के सीक्वल के तौर पर सीता स्वयंवर, सती अंजनि और वैदेही जनक नाम से फिल्में बनाईं थीं। मूक फिल्मों के दौर में तकरीबन हर वर्ष रामकथा पर केंद्रित फिल्में बनती थीं। अहिल्या उद्धार, श्रीराम जन्म, लवकुश, रामरावण युद्ध, सीता विवाह, सीता स्वयंवर और सीता हरण आदि प्रमुख फिल्में हैं।
जब बोलती फिल्मों का दौर शुरू हुआ तब भी रामकथा फिल्मकारों की पंसद बनी रही। बंगाल के मशहूर फिल्मकार देवकी बोस ने सीता के नाम से एक फिल्म बनाई थी जो अत्यन्त लोकप्रिय हुई थी। इस फिल्म में राम के मर्यादा पुरुषोत्तम स्वरूप को स्थापित करने की कोशिश की गई थी। इस फिल्म में सीता की भूमिका मशहूर अभिनेत्री दुर्गा खोटे ने निभाई थी और पृथ्वीराज कपूर ने राम की। ये हमारे देश में बनी पहली ऐसी फिल्म थी जिसको अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया था। इस फिल्म का प्रदर्शन १९३४ में वेनिस फिल्म फेस्टिवल में किया गया था।
प्रकाश पिक्चर्स ने वाल्मीकि के रामायाण के आधार पर चार फिल्में बनाईं, भरत मिलाप, रामराज्य, रामवाण और सीता स्वयंवर। इन चारों फिल्मों में पूरी रामायण को फिल्माया गया। इन चार फिल्मों में राम का किरदार अभिनेता प्रेम अदीब और सीता की भूमिका का शोभना समर्थ ने निभाई थी। इन फिल्मों में प्रेम अदीब और शोभना समर्थ ने अत्यन्त शानदार काम किया था। उस दौर में लोग प्रेम अदीब और शोभना समर्थ की तस्वीरें देखकर उनके सामने सर झुकाकर प्रणाम करते थे। आज की पीढ़ी ने दूरदर्शन पर रामानन्द सागर की रामायण की लोकप्रियता देखी। प्रकाश पिक्चर्स की ये चारों फिल्में भी अपने दौर में इसी तरह लोकप्रिय हुई थीं। इनमें से रामराज्य को महात्मा गांधी ने देखा।
१९६७ में प्रकाश पिक्चर्स ने जब रामराज्य को नए अंदाज में बनाने की तैयारी शुरू की तो इसके निर्देश कवि जय भट्ट ने नूतन से सीता के रोल के लिए सम्पर्क किया था। उनको लगा था कि शोभना समर्थ की बेटी नूतन इस भूमिका के लिए उपयुक्त होंगी। नूतन ने तब ये कहते हुए मना कर दिया था कि उनके अभिनय की तुलना उनके मां के अभिनय से होगी और वो ऐसा नहीं चाहतीं। नूतन के इंकार के बाद सीता की भूमिका वीणा राय ने निभाई थी। किन्तु ये फिल्म सफल नहीं हो पाई थीं। इसके बाद भी नियमित अंतराल पर रामकथा पर फिल्में बनती रहीं हैं जो इस बात को साफ तौर पर इंगित करती हैं कि राम और उनसे जुड़ी कहानियां भारतीय जनमानस को हमेशा आकर्षित करती हैं।
हिन्दी फिल्मों के भक्तिकाल को पुष्ट करने के लिए राजकपूर और सचिन भौमिक के बीच की एक मुलाकात का उल्लेख करना आवश्यक है। हिन्दी फिल्मों से सबसे बड़े शो मैन रामकथा के बारे में क्या सोचते थे, यह इससे स्पष्ट होता है। सचिन भौमिक को क्या पता था कि राजकपूर से उनकी एक मुलाकात उनको सफलता की ऐसी राह दिखा देगा जिस पर चलकर वो हिन्दी फिल्मों के सबसे सफल कहानीकार बन जाएंगे। हिन्दी फिल्मों के इतिहास में जितनी सिल्वर जुबली और गोल्डन जुबली फिल्में सचिन भौमिक के खाते में हैं उतनी किसी और के नहीं। सलीम-जावेद की जोड़ी को भी नहीं।
सचिन भौमिक की सफलता के पीछे की कहानी अत्यन्त दिलचस्प है। सचिन काम की तलाश में कोलकाता (तब कलकत्ता) से माया नगरी मुंबई (तब बॉम्बे) पहुंचे थे। जब वो मुंबई आए तो उस समय राजकपूर को प्रसिद्धि मिल चुकी थी और उनकी फिल्म बरसात, सरगम, आवारा, बूटपॉलिश और श्री ४२० जैसी फिल्में लोकप्रिय हो चुकी थीं। सचिन भौमिक किसी तरह से राजकपूर से मिलना चाहते थे। एक दिन वो आर.के. स्टूडियो पहुंचे और राजकपूर से मिलने की इच्छा जताई। उस दिन राजकपूर से भेंट नहीं हो सकी किन्तु अगले दिन का समय तय हुआ। नियत समय पर सचिन भौमिक चेंबूर के आर.के. स्टूडियो पहुंचे। वहां उनको राजकपूर के कमरे में ले जाया गया। सचिन भौमिक से राजकपूर ने हाल-चाल पूछा और फिर आने का प्रयोजन।
भौमिक ने बताया कि वो फिल्मों के लिए कहानी लिखना चाहते हैं। राजकपूर की सहमति के बाद सचिन ने कहानी सुनाना आरंभ किया और राजकपूर बहुत धैर्यपूर्वक उनकी कहानियां और बातें सुनते रहे। बातचीत जब खत्म हुई तो राजकपूर ने कहा कि आप हिन्दी फिल्मों के लिए कहानियां लिखते हो, अच्छी बात है, लिखते भी रहो, किन्तु इतना ध्यान रखना कि हिन्दी फिल्मों में कहानी तो एक ही होती है, राम थे, सीता थीं और रावण आ गया। सचिन भौमिक जब राजकपूर से मिलकर निकल रहे थे तो उनके मस्तिष्क में ये बात बार-बार कौंध रही थी। सचिन भौमिक ने एक साक्षात्कार में बताया था कि राजकपूर की ये बात उन्होंने गांठ बांध ली थी और वो कोई भी कहानी लिखते थे तो उनके अवचेतन मन में रामकथा अवश्य चल रही होती थी।
आज जब इण्डिया एक बार फिर से भारत के वैभव की ओर लौट रहा है तो फिल्मकारों को भी इस बारे में गम्भीरता से विवेचन करना चाहिए कि उन्हें भी क्यों न पौराणिक पात्रों और चरित्रों को केन्द्र में रखकर फिल्में बनाई जाएं। यथार्थवादी कहानियों के नाम पर अपने पौराणिक ग्रंथों में या अपने समाज में यत्र तत्र बिखरी कहानियों को छोड़कर विदेशी फिल्मों की नकल करने से मुक्त होकर भारतीय समाज की पहचान के अनुसार फिल्में बनाएं, मुनाफा भी कमाएंगे और नई पीढ़ी का परिचय भी अपने देश और समाज की संस्कृति से हो पाएगा।