हिन्दी फिल्मों में नारी का चित्रण एवं महिलाओं की भूमिका

अजय देशपाण्डे

वैसे तो पश्चिमी जगत्‌ में सिनेमा १९वीं शताब्दी के उत्तरार्ध लगभग १८८७-८८ में आरम्भ हुआ। वह आरम्भिक काल था और तकनीकी तौर पर सिनेमा से सम्बद्ध कई पहलुओं पर निरन्तर कार्य जारी रहा। १९वीं शताब्दी के अन्त में यूरोप, अमेरिका में सिनेमा, एक अत्यन्त प्रभावी माध्यम बनकर उभरने लगा था। यह वही समय था जब विशेषतया यूरोप में ऑर्केस्ट्रा, सिम्फनी इत्यादि जन मानस के मन, मस्तिष्क पर प्रभाव डाल रहे थे। भारत भी कहां पीछे छूटने वाला था! सन् १९१३ में धुण्डिराज गोविन्द फाल्के उपाख्य दादासाहेब फाल्के ने भारतीयों को सिनेमा से सर्वप्रथम रूबरू करवाया और फिल्म थी राजा हरिश्चन्द्र।

यह एक मूक चित्रपट था, जिसके निर्माण के लिए दादासाहेब फाल्के कई दिनों तक लन्दन में जा बैठे थे। लन्दन से ही फिल्म की रील्स और अन्य सामग्री उन्हें लानी पड़ी। यहाँ यह कहना आवश्यक है कि राजा हरिश्चन्द्र में कोई भी महिला कलाकार नहीं थी।

उपलब्ध जानकारी के अनुसार पहली भारतीय महिला कलाकार दुर्गाबाई कामत थीं जिन्हें दादासाहेब फाल्के ने अपनी दूसरी फिल्म मोहिनी भस्मासुर में इंट्रोड्यूस किया और साथ में इंट्रोड्यूस किया दुर्गाबाई की बेटी कमलाबाई कामत को भी। यह एस सफल फिल्म रही और मुम्बई, लाहौर, कलकत्ता, ढाका जैसे कई नगरों में इसने ठीकठाक व्यवसाय भी किया।

लगभग सन्‌ १९३० तक मूक-चित्रों का दौर अविभाजित भारत में चला, जिसमें कई फिल्मों में महिलाओं का चरित्र पुरुष कलाकार ही निभाते थे। सन्‌ १९३१ में भारतीय सिनेमा में आमूल चूल परिवर्तन आया जब मूकपट सवाक में परिवर्तित हुए। पहली सवाक फिल्म आलम आरा को करार दिया गया हालांकि इस विषय में काफी भ्रम और विवाद अनेक वर्षों से चलता आ रहा है।

इस दौर के सिनेमा में मराठी नाट्य-भूमि का विलक्षण प्रभाव था, जब मराठी नाट्यसंगीत की ही तर्ज पर फिल्मों में भी कई गीत रचे जाने लगे। मराठी नाट्यभूमि की स्थापना लगभग एक शताब्दी पहले यानी १८४३ में विष्णुदास भावे जी ने की थी। मराठी नाट्यगीत मूलतः सिचुएशनल होते थे और यही विशेषता हमें आज तक फिल्मों में दिखाई देती है।

१९३० के प्रारंभिक वर्षों में ही सिनेमा ने एक अत्यन्त प्रभावी दृश्य-श्राव्य माध्यम के तौर पर भारतीय जनमानस पर पकड़ पा ली। अगर मैं हिन्दी फिल्मों की बात करूं तो बहुत जल्द ही, मुम्बई, कोल्हापुर, कोलकाता इत्यादि नगरों में बड़ी संख्या में फिल्मों का निर्माण होने लगा। कुछ ही वर्ष पश्चात्‌ १९३० के दशक के मध्य में लाहौर भी फिल्म निर्माण का एक प्रमुख केन्द्र बनकर उभरा, जहां हिन्दी और पंजाबी फिल्में बनने लगीं।

चूंकि सिनेमा नूतन माध्यम था, फिल्म निर्माण से जु़डे हुए प्रत्येक व्यक्ति में उसकी सृजनशीलता चरम पर थी। यह सृजनशीलता प्रत्येक क्षेत्र में देखी गई, उदाहरण के तौर पर तकनीकी, आशय, अभिनय, संगीत, काव्य। हम जैसे फिल्म-शोधकर्ताओं के लिए यह दशक अत्यन्त महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसी दशक से भविष्य की भारतीय फिल्मों की नींव पड़ी है।

१९३० के दशक में हीराबाई बड़ोदेकर, जद्दनबाई (नरगिस की माँ), वहीदनबाई जैसी महिलायें तो फिल्मों के निर्माण भी करने लगी थीं जिनमें उनकी प्रमुख भूमिकाएं भी हुआ करती थीं, जो अधिकतर सामाजिक विषयों पर बनी थीं। न्यू थिएटर्स, कलकत्ता की फिल्में अधिकतर पुरुष प्रधान रहीं। कारण था, उस समय के महानायक कुन्दनलाल सहगल जो उनमें प्रमुख भूमिका में हुआ करते थे।

उन फिल्मों में उमा शशि, कानन देवी जैसी उनकी अभिनेत्रियों का चरित्र प्रमुख तौर पर किसी सामान्य भारतीय स्त्री जैसा ही हुआ करता था। इसके पूरी तरह से विपरीत, कोल्हापुर और पुणे से निर्माण होने वाली प्रभात, नवयुग जैसी फिल्म कम्पनियों ने तो महिला प्रधान फिल्मों का ही निर्माण कर, उस दौर की महिलाओं की समस्याओं को अनूठे ढंग से प्रदर्शित किया है, विशेषकर प्रभात की फिल्में।

हालांकि उस दौर के सिनेमा में आज जैसी तकनीक उपलब्ध नहीं थी, किन्तु फिल्म का आशय, पटकथा और सशक्त अभिनय आज भी हमें इन फिल्मों को देखने के लिए मजबूर करते हैं। कुंकु (१९३७) और माणूस (१९३९) इन दो मराठी फिल्मों का विशेष उल्लेख आवश्यक है। इन फिल्मों में क्रमशः शान्ता आपटे और शान्ता हुबलीकर की शानदार भूमिकाएं थीं।

वी. शान्ताराम की महिलाओं के प्रति जो संवेदनशीलता होती थी, उसका यह दोनों चित्रपट उत्कृष्ठ प्रतिमान है। फिल्म कुंकु (१९३७) में एक गरीब नवयुवती की शादी, उसकी मर्जी के विरुद्ध एक प्रौ‹ढ धनवान व्यक्ति से की जाती है जिसके बेटे उम्र में उस नवयुवती से भी बड़े होते हैं। उस दौर की इस सामाजिक कुप्रथा पर जो प्रभावी कुठराघात शान्ताराम ने फिल्म में किया है वह कई दिनों तक हमें झकझोर के रखता है। शान्ता आपटे का अभिनय भी शान्ताराम के निर्देशन का पूरक है।

उसी तरह से माणूस (१९३९) की सशक्त पटकथा, निर्देशन और अभिनय, उसे आपको जल्दी भूलने नहीं देती। यह फिल्म एक वारांगना (शान्ता हबलीकर) के अपने भावनिक और सामाजिक संघर्ष पर आधारित थी। यह दोनों फिल्में इतनी लोकप्रिय हुई कि शान्ताराम को इन दोनों फिल्मों का निर्माण हिन्दी में भी करना पड़ा। मुम्बई स्थित वाडिया मूवीटोन की फिल्मों का भी उल्लेख करना यहाँ अनिवार्य है, जिन्होंने १९३० के दशक के मध्य में फीयरलेस नादिरा नामक अभिनेत्री को अपनी फिल्मों द्वारा प्रस्तुत किया।

यह अधिकतर स्टंट फिल्में हुआ करती थीं और पूर्ण रूप से स्त्री-प्रधान। नादिया जिनका मूल नाम मैरी इवांस था, उनके हंटरवाली (१९३५) फिल्म के चरित्र के लिए हमेशा याद की जाएगी। १९३० के दशक के अन्त तक लाहौर भी एक बड़ा केन्द्र बनकर उभरा, जहां से नूरजहाँ जैसी अभिनेत्री उभरी। नूरजहाँ की लोकप्रियता थोड़े ही समय में इतनी बढ़ी कि उन्हें लाहौर छोड़ मुम्बई का रुख करना पड़ा। चूंकि वह एक गायिका भी थीं, फिल्मों में उनकी भूमिकाएं अक्सर एक आम हिन्दुस्तानी महिला की ही होती थी।

१९४० के दशक ने अविभाजित भारत की साधारण महिलाओं को भी फिल्मों की तऱफ आकृष्ट किया, जिनमें प्रमुख नाम रहे नलिनी जयवन्त, मीनाक्षी शिरोड़कर, स्नेहप्रभा प्रधान, सुरैय्या इत्यादि। सन १९४२ में न्यू-थिएटर्स का स्टूडिओ आग के हवाले हुआ और कुन्दनलाल सहगल, पंकज मलिक जैसे लोगों को कलकत्ता छोड़कर मुंबई की तरफ अपना रुख करना पड़ा। यह बात स्वीकारनी होगी कि जब तक सहगल जीवित रहे (१९४७), भारतीय फिल्में भी तत्कालीन समाज जैसी ही पुरुष प्रधान रहीं। फिल्मों में अब जल्द ही बड़ा बदलाव आने वाला था।

सन् १९४७ में अविभाजित भारत को मानव निर्मित सबसे बड़ी त्रासदी का सामना करना पड़ा, जब करोड़ों लोग बिखर रहे थे। जब सारा आलम ही गमगीन था, तब ईश्वर ने भारतीय सिनेमा और संगीत के धरातल पर मानो अपना ही एक स्वर भेजा जिसका नाम था लता मंगेशकर! यह एक ऐसी आवाज थी, जिसकी दैवीय गायकी ने संभवतः आहत मनों पर दवा का काम किया। जिसने बंटवारे और उससे उपजी हिंसा से क्षत्-विक्षत् और गहन अवसाद से भरे दिलों में फिर से आशा का संचार किया।

शायद यह कहना अतिश्योक्ति न हो कि टीस से घायल देश के लोगों को इस स्वर ने आत्मिक बल देने में भरपूर योगदान दिया। १९४९-५० तक गीता बाली, मधुबाला, नरगिस, नलिनी जयवंत, कामिनी कौशल, निगार सुल्ताना जैसी अव्वल अभिनेत्रियां यह खुलकर कहने लगीं कि अगर फिल्मों में लता के गीत नहीं तो हम भी नहीं!

तत्कालीन संगीतकारों की माने तो लता मंगेशकर प्रत्येक स्वरूप और भाव के गीत उतनी ही निपुणता से गाने लगीं और यही बात तत्कालीन निर्माता-निर्देशक के सम्बन्ध भी लागू हुई। अनेक फिल्मों की पटकथाएं महिला प्रधान दिखाई देने लगीं। मानो, वह भारतीयता के उत्कर्ष का सर्वोच्च बिन्दु रहा।

कुन्दनलाल सहगल के गमन के २-३ वर्षों में ही यह बदलाव भारतीयों ने देखा और सहर्ष स्वीकार किया। ऐसी अनेक फिल्में बनीं जिनका शीर्षक ही फिल्म के चरित्र का नाम होता था, जैसी – तराना (मधुबाला, १९५१), सैयां (मधुबाला, १९५१)। कहने की यह कतई आवश्यकता नहीं है कि यह फिल्में पूरी तरह से महिला-प्रधान थीं।

औसतन १४० मिनिट की फिल्मों में लगभग ४० मिनिट के लता के सुर यह एक समीकरण बन गया। यह वह समय था जब समाज पुरुष प्रधान था और फिल्में स्त्री प्रधान! और इस फिनोमिना की प्रमुख शिल्पकार रहीं लता मंगेशकर! उन्होंने हिन्दी सिनेमा के समीकरण तक बदल डाले। भारतीय सिनेमा का अर्थ-तन्त्र लता के दैवीय सुरों के आसपास बुनता हुआ देखा गया।

१९५० का दशक सम्पूर्णतः लता-मय रहा। नूतन, वैजयन्ती माला, वहीदा रहमान जैसी अभिनेत्रियों का सशक्त अभिनय हमें परदे पर दिखाई दिया और उन्हें बेजोड़ साथ मिलता गया लता जी के स्वरों का। अमिया चक्रवर्ती, के. अमरनाथ, डी.डी. कश्यप, बी.आर. चोपड़ा, बिमल राय, वी. शान्ताराम, मेहबूब खान जैसे महान निर्माता-निर्देशक अपनी फिल्मों से निरन्तर तत्कालीन भारतीय स्त्री के विभिन्न भावों का दर्शन कराते रहे।

नूतन अभिनीत कोई भी फिल्म हो, क्या आप उसे भूल पाते हो? सीमा (१९५५), सुजाता (१९५९), बन्दिनी (१९६३) में तो नूतन ने बेमिसाल अभिनय प्रस्तुत करते हुए उन भूमिकाओं को ही अमर बना दिया। उसी प्रकार से वैजयन्ती माला ने फिल्म साधना (१९५८) में जो अभिनय प्रस्तुत किया, वह भी अति उच्च दर्जे का रहा।

नरगिस अभिनीत मदर इण्डिया (१९५७) में नरगिस के अभिनय और लता मंगेशकर के गीतों के अलावा कुछ दूसरा स्मरण में ही नहीं रहा। कुल मिलाकर, हिन्दी फिल्मों की दृष्टि से १९५० का दशक संगीतमय रहा किन्तु पूर्णतः स्त्री-प्रधान!

१९६० का दशक आते ही हिन्दी सिनेमा में फिर बदलाव स्पष्ट तौर पर दिखाई देने लगा। अधिकांश दशक में शम्मी कपूर, राजेन्द्र कुमार इत्यादि पुरुष कलाकारों का बोलबाला रहा किन्तु लता मंगेशकर के सुरों ने एक तरह का बैलेंस प्रदान किया, परिणामस्वरूप महिला कलाकारों का भी महत्त्व बना रहा।

चूँकि भारत उस दशक में दो बार युद्ध झेल चुका था, फिल्मों में अवश्य इस पहलू का प्रभाव दिखाई दिया। प्रसिद्ध निर्देशक राज खोसला की अधिकतर फिल्मों में सशक्त महिला चरित्र का दर्शन हुआ है। उपर्युक्त कारणों से बैलेंस पुरुष प्रधान फिल्मों की तरफ झुका।

आशा पारेख, साधना, वहीदा रहमान जैसी अभिनेत्रियों ने उपलब्ध पट कथाओं के अनुसार उत्तम अभिनय प्रस्तुत करते हुए अपनी भूमिकाओं को निश्चित रूप से यादगार बनाया। फिल्म गाइड (१९६५) में जितना सशक्त अभिनय देव आनन्द (राजू गाइड) ने प्रस्तुत किया, उतना ही वहीदा रहमान ने रोजी के चरित्र से भी किया। इसी श्रेणी का अभिनय वहीदा रहमान ने फिल्म खामोशी (१९६९) में भी प्रस्तुत किया जिनके समक्ष धर्मेन्द्र और राजेश खन्ना थे और यह वही वर्ष था, जब राजेश खन्ना भारतीय फिल्मों के पहले सुपरस्टार बनने जा रहे थे, १९६९.

१९७० का पूर्वाद्र्ध रोमांटिक फिल्मों के लिए जाना गया जब राजेश खन्ना अपने चरम पर थे। शर्मीला टैगोर, जया भादुड़ी, मुमताज, लीना चन्द्रावरकर जैसी अभिनेत्रियों में प्रतीभा होकर भी उन्हें बहुत अधिक अवसर न मिल पाए। फिल्म खिलौना (१९७०) में मुमताज ने संजीव कुमार के समक्ष अवश्य सशक्त अभिनय प्रस्तुत किया किन्तु उनकी भूमिका अप्रधान ही थी।

१९७३-७४ से अमिताभ बच्चन के एक्शन फिल्म्स का दौर आरम्भ हुआ और साथ ही सलीम-जावेद जोड़ी का भी और देखते-देखते हमारी हिन्दी फिल्मों में संवेदनशीलता ही मानो समाप्त सी होने लगी। मार-धाड़ की फिल्में अधिक बनने लगीं, जिन्हें दर्शकों ने पसन्द भी किया। किन्तु उस दौर में ॠषिकेश मुखर्जी, गुलजार, बासु चटर्जी जैसे निर्माता-निर्देशकों ने मानवीय पहलुओं पर उत्कृष्ट फिल्में बनाईं।

गुलजार ने मेरे अपने (१९७१), परिचय (१९७२), आँधी (१९७५), मौसम (१९७५), किनारा (१९७७) जैसी फिल्मों में महिला और पुरुष चरित्रों को समान प्रमुखता दी। इसी प्रकार ॠषिकेश मुखर्जी की फिल्म अभिमान (१९७३) में स्पष्ट तौर पर जया भादुड़ी का चरित्र ही फिल्म में प्रधान है। फिल्म मिली (१९७५) तो मानो ॠषिकेश मुखर्जी ने जया भादुड़ी के लिए ही बनायी थी और जया ने भी सम्पूर्ण फिल्म में ॠषिकेश दा को किसी भी मोड़ पर निराश नहीं किया और फिल्म स्मरणीय बन गई।

जिस दशक आरम्भ ही दम मारो दम से होता हो और यह गीत बेशुमार लोकप्रिय होता हो, तब और क्या अपेक्षा की जा सकती है? फिल्मकारों की रुचि अब पूरी तरह से बदल चुकी थी। हिन्दी फिल्मों में भारतीय महिला का बाजारीकरण या विद्रूपीकरण इसी दशक से होने लगा जो आगे के दशकों में बहुत बढ़ा हुआ हमें दिखाई दिया।

१९७० और १९८० दशकों में अवश्य पैरेलल सिनेमा का उदय भारत में हुआ। स्मिता पाटिल, शबाना आजमी, जेनिफर कपूर जैसी कुछ अभिनेत्रियां जो मुख्य रूप से नाट्य भूमि से आई थीं, उन्होंने अवश्य कुछ फिल्मों में उम्दा अभिनय प्रस्तुत करते हुए भारतीय जनमानस में संवेदना लाने का कार्य किया। किन्तु चूंकि उन फिल्मों की संख्या अत्यल्प थी, इस कारण उसका प्रभाव काफी सिमित रहा।

पिछले २५-३० वर्षों से हमारे हिन्दी सिनेमा जगत् में जो फिल्में बन रही हैं, उन पर क्या और कैसी टिप्पणी करें? भारतीय महिला जो अपने दैनंदिन निजी जीवन में कई भूमिकाओं में दिखाई देती हैं, वह कभी शृंगार करती हैं तो कभी वह विरह में तड़पती हैं, तो कभी वह माँ होती है तो कभी बहन तो कभी वह वीरांगना भी होती हैं और सबसे महत्वपूर्ण यह बात है कि इन सारी भूमिकाओं में हमें पवित्रता दिखाई देती है।

फूहड़ता और भारतीयता का कोसों तक कोई सम्बन्ध नहीं है। मानवीय संवेदना हमारी सनातन सभ्यता का परिचायक है। आश्चर्य की बात यह भी है कि आज के मुकाबले, हमारा सिनेमा जब भारत स्वतन्त्र हुआ तब अधिक भारतीय था। सोचना हम सबको है कि कला क्षेत्र में हम किस सीमा तक समझौता करें?

 

साभार: चित्र जगत भारत बोध