भारत में सिनेमा की शुरुआत हुए लगभग १०९ वर्ष हो गए हैं। ३ मई, १९१३ में प्रदर्शित राजा हरिश्चन्द्र को जिसका निर्माण-निर्देशन ढूँढ़ीराज गोविन्द फाल्के ने किया था, भारत की पहली फिल्म माना जाता है। कालांतर में आप दादा साहब फाल्के के नाम से प्रसिद्ध हुए और भारत सरकार ने फिल्म निर्माण में उनकी उपलब्धियों को सराहते हुए देश के सबसे बड़े फिल्म सम्मान का नाम उनके नाम पर रखा है। यह पुरस्कार भारत सरकार द्वारा प्रत्येक वर्ष देश के किसी ऐसे फिल्मकार को दिया जाता है जिसने सिनेमा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया हो। किसी भी फिल्मकार के लिए इसको पाना अत्यन्त गौरव की बात होती है। भारत में सिनेमा ने उसके बाद से निरन्तर विकास किया है। खामोश फिल्मों को आवाज मिली, श्वेत श्याम चित्रों में रंग भरे गए। तकनीक की सहायता से असम्भव को सम्भव बनाया गया किन्तु एक क्षेत्र ऐसा भी है जहां भारतीय फिल्मकार आगे बढ़ने की बजाय पीछे जाते दिखाई देते हैं। ये क्षेत्र हैं फिल्मों की विषय वस्तु का चयन करने का।
भारत में जब फिल्मों का निर्माण प्रारम्भ हुआ तभी से भारतीय कहानियाँ फिल्मों का विषय बनकर सामने आती रहीं। भारत की पहली फिल्म “राजा हरिश्चन्द्र” का निर्माण भी एक ऐतिहासिक तथ्य पर ही हुआ था। मूक फिल्मों के काल में बनने वाली अधिकांश फिल्में इसी तरह की प्रचलित पौराणिक कथाओं पर आधारित थी। “लंका दहन”, “कालिया मर्दन”, “श्री कृष्ण जन्म”, “सैरंध्री”, “नल दमयन्ती”, “भक्त विदुर”, “सावित्री” जैसी अनेक फिल्मों के कथानक इन्हीं पौराणिक कथाओं से लिए गए।
भारतीय सिनेमा का स्वर्णिम काल तब आया जब साहित्यिक कृतियों को फिल्मकारों (film makers) ने सिनेमा के रुपहले पर्दे पर जीवन्त किया। इस दौर में न केवल भारतीय भाषाओं जैसे संस्कृत, हिन्दी, तमिल, तेलुगू, बांग्ला आदि से जुड़े साहित्य पर उत्कृष्ट फिल्मों का निर्माण किया गया बल्कि विदेशी साहित्य को भी अपनी फिल्मों का विषय बनाया गया।
संस्कृत के प्रसिद्ध रचनाकार कालिदास की कृति “अभिज्ञान शाकुन्तलम्” पर तो १९२० में ही एक मूक फिल्म का निर्माण किया जा चुका था किन्तु उसके बाद १९३१ में इसी विषय पर दो फिल्मों का निर्माण, मदन थियेटर (theatre) के जे.जे. मदन और सरोज मूवीटोन के एम. भवनानी के निर्देशन में किया गया था। आगे चलकर प्रसिद्ध निर्माता निर्देशक वी. शांताराम (V Shantaram) ने १९४३ में “शकुंतला” और १९६१ में “स्त्री” नाम से इसी कहानी को बनाया। इसके अतिरिक्त कालिदास के ही “मेघदूत” को रुपहले पर्दे पर निर्माता-निर्देशक देवकी बोस ने उतारा।
संस्कृत के प्रसिद्ध नाट्यकार भवभूति की कृति “मालती माधव” को सरोज मूवीटोन के बैनर तले १९३३ में निर्देशक ए.पी. कपूर और १९५१ में निर्देशक भालेराव जोशी ने प्रसन्न पिक्चर्स के बैनर तले फिल्माया। महाकवि शूद्रक (Shudrak) द्वारा रचित संस्कृत नाटक “मृच्छकटिकम” को “शकुंतला” की तरह फिल्मकारों ने अनेक बार अपनी फिल्मों का विषय बनाया है। १९३४ में “वसन्तसेना” नाम से वसन्त सिनेटोन के लिए जे.पी. अडवानी ने इसका निर्माण किया था। १९४२ में अत्रे पिक्चर्स ने इसी नाम से गजानन्द के निर्देशन में और १९८४ में निर्माता-अभिनेता शशि कपूर (Shashi Kapoor) ने गिरीश कर्नाड (Girish Karnad ) के निर्देशन में इसी नाटक पर “उत्सव” (Utsav) का निर्माण किया। इस फिल्म में मुख्य भूमिका में रेखा (Rekha) थीं। हालांकि मूल कथानक के साथ इसमें छेड़छाड़ की गई थी। फिल्म के असफल होने का कारण भी इसको माना गया।
इनके अतिरिक्त श्री हरि की रचना “नागानन्द” तथा “रत्नावली”, बाणभट्ट की “कादम्बरी”, जयदेव की काव्यकृति “गीत गोविन्द” पर भी फिल्मों का निर्माण हुआ। हिन्दी साहित्य को भी प्रारम्भिक फिल्मों में पर्याप्त स्थान मिला।
१९३४ में प्रख्यात लेखक मुंशी प्रेमचन्द (Munshi Premchand) ने अजन्ता सिनेटोन के लिए “मिल मजदूर” की कहानी लिखी। एम. भवनानी के निर्देशन में बनी इस फिल्म के संवाद भी प्रेमचन्द ने लिखे थे। उन्होंने इस फिल्म में एक छोटी सी भूमिका भी निभायी थी। १९३६ में इसी कहानी को “गरीब परवर” के नाम से बनाया गया। प्रेमचन्द की कहानी “नवजीवन” पर १९३५ में और उपन्यास “सेवा सदन” पर आधारित “बाजारे हुस्न” जिसका निर्देशन नानू भाई वकील ने किया था। १९४६ में “रंगभूमि” पर “चौगाने हस्ती” नाम से एम. भवनानी ने निर्देशित किया। हालांकि प्रेमचन्द को फिल्मी जगत रास नहीं आया और वह शीघ्र ही बनारस लौटकर लेखन कर्म में लग गए, किन्तु उनकी कहानियों – गोदान, गबन, दो बैलों की जोड़ी, शतरंज के खिलाड़ी (Shatranj Ke Khiladi) – पर फिल्मों का निर्माण होता रहा।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (Bhartendu Harishchandra) रचित “अन्धेर नगरी” पर आधारित “अन्धेर नगरी चौपट राजा” का निर्देशन १९५५ में शमीम भगत ने किया। चन्द्रधर शर्मा लिखित कहानी “उसने कहा था” पर बिमल रॉय (Bimal Roy) ने फिल्म का निर्माण किया।
प्रेमचन्द्र के अतिरिक्त सुदर्शन, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, भगवती चरण वर्मा की कृतियों को भी फिल्मकारों ने फिल्माया था। भगवती चरण वर्मा के उपन्यास “चित्रलेखा” पर दो बार केदार शर्मा ने फिल्म बनाई थी। बिहार के अनूप लाल मण्डल के उपन्यास “मीमांसा” को ‘बहुरानी” के नाम से फिल्माया गया था। आधुनिक कथाकारों में मोहन राकेश की कहानी “उसकी रोटी” को इसी नाम “उसकी रोटी” से मणि कौल ने फिल्म के रूप में परदे पर दर्शाया।
मोहन राकेश की ही कृति “आषाढ़ का एक दिन” भी सिनेमा के पर्दे पर झिलमिलाया। उनके उपन्यास “आधे-अधूरे” पर भी एक फिल्म का निर्माण आरम्भ हुआ जो पूरा न हो सका।
राजेन्द्र यादव के उपन्यास “सारा आकाश” को भी फिल्मी पर्दे पर बासु चटर्जी ने प्रस्तुत किया। मन्नू भण्डारी की कहानी “यही सच है” पर “रजनीगंधा” जैसी सफल फिल्म का निर्माण बासु चटर्जी (Basu Chatterjee) ने किया था। रमेश बख्शी के उपन्यास “अठारह सूरज के पौधे” को “सत्ताइस डाउन” नाम से अवतार कृष्ण कौल ने रुपहले पर्दे पर जीवन्त किया।
माखन लाल चतुर्वेदी के नाटक “कृष्णार्जुन युद्ध, मुक्तिबोध की कहानी पर “सतह से उठता आदमी”, धर्मवीर भारती के उपन्यास “सूरज का सातवां घोड़ा” पर भी फिल्म बन चुकी है।
सिनेमा के आरम्भिक काल में साहित्य और सिनेमा एक दूसरे के साथ मिलकर चल रहे थे। फणीश्वर नाथ ‘रेणू’ की कहानी “मारे गए गुलफाम” को बासु भट्टाचार्य ने “तीसरी कसम” के नाम से दर्शकों के लिए प्रस्तुत किया। राजकपूर (Raj Kapoor), वहीदा रहमान (Wahida Rahman) अभिनीत इस फिल्म का गीत संगीत बहुत ही लोकप्रिय हुआ था। गीतकार शैलेन्द्र (Shailendra) ने इस फिल्म का निर्माण किया था। हालांकि, इस फिल्म ने शैलेन्द्र जैसे संवेदनशील गीतकार की बलि ले ली।
इसके अतिरिक्त साहित्यिक रूप से कम प्रतिष्ठित किन्तु व्यावसायिक रूप से अत्यन्त सफल कई उपन्यासकारों की रचनाओं पर बनी फिल्मों ने न केवल अपार सफलता अर्जित की बल्कि अपने लेखक और फिल्मकार दोनों को मालामाल कर दिया।
इस श्रेणी में गुलशन नन्दा (Gulshan Nanda) का नाम प्रमुख है। एक जगह पर प्रसिद्ध शायर निदा फाजली बताते हैं कि एक बार उन्होंने प्रसिद्ध लेखक कृश्नचन्दर को फुटपाथ पर गुलशन नन्दा के उपन्यास को पलटते देखा। निदा फाजली ने उनसे पूछा ये आप क्या कर रहें हैं? तो कृश्नचन्दर ने कहा, “मैं समझने का प्रयास कर रहा हूं कि यह ऐसा क्या लिखता है कि इसके उपन्यासों का एक-एक एडीशन लाखों में छपता है और हम हजारों के लिए तरसते हैं। गुलशन नन्दा के उपन्यासों पर कई सफल फिल्में बनीं। “अन्धेरे चिराग” पर मनोज कुमार (Manoj Kumar) की मुख्य भूमिका में “फूलों की सेज”, राजेश खन्ना (Rajesh Khanna) के सुपर स्टारत्व को सुदृढ़ करने वाली फिल्म “कटी पतंग”, धर्मेंद्र (Dharmendra) की प्रमुख भूमिका वाली “झील के उस पार” आदि उल्लेखनीय हैं।
हिन्दी सिनेमा के विकास में यदि हम बांग्ला साहित्य के योगदान का उल्लेख नहीं करेंगे तो यह अन्याय होगा। सच कहा जाए तो हिन्दी सिनेमा की कई कालजयी फिल्में बंगाली लेखकों की कलम से निकली हैं। प्रेम की अनोखी परिभाषा गढ़ती “देवदास” जिसे कई बार फिल्माया जा चुका है। इसके रचनाकार थे शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय (Sharat Chandra Chattopadhyay)। इनकी कृतियों पर बनी फिल्मों की संख्या काफी अधिक है। बिमल रॉय (Bimal Roy) ने १९५३ में शरत बाबू की कृति “परिणीता” – मुख्य भूमिका में अशोक कुमार (Ashok Kumar), मीना कुमारी (Meena Kumari) और १९५४ में मुख्य भूमिका में कामिनी कौशल (Kamini Kaushal) और अभि भट्टाचार्य “बिराज बहु” का निर्माण किया। शरत बाबू के उपन्यास “देवदास” (Devdas) को उन्होंने दिलीप कुमार (Dilip Kumar) के साथ बनाया। इसके अतिरिक्त भी शरत बाबू की कई अन्य कृतियों पर फिल्में बन चुकी हैं।
“देवदास” और “परिणीता” का निर्माण संजय लीला भंसाली (Sanjay Leela Bhansali) और प्रदीप सरकार जैसे फिल्मकारों ने भी किया है जिसमें शाहरुख खान (Shah Rukh Khan), ऐश्वर्या रॉय (Aishwarya Rai) और माधुरी दीक्षित (Madhuri Dixit) ने काम किया और दर्शकों ने भी इन फिल्मों को अपना प्यार देकर सफल बनाया।
इनके अतिरिक्त बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय (Bankim Chandra Chattopadhyay) के उपन्यास “आनन्द मठ” (Anand Math) पर हेमेन्द्र गुप्ता के निर्देशन में “आनन्द मठ” जैसी कालजयी कृति की रचना हुई। इसका गीत “वन्दे मातरम्” (Vande Mataram) स्वतन्त्रता संग्राम का उद्घोष बन गया था। “वन्दे मातरम्” आज हमारा राष्ट्रगीत (National Song) है।
यदि हम बांग्ला साहित्यकार बिमल मित्र का उल्लेख नहीं करेंगे तो कुछ अधूरा रह जाएगा। बिमल मित्र के उपन्यास “साहिब, बीवी और गुलाम” पर बनी इसी नाम की गुरुदत्त (Guru Dutt) द्वारा निर्मित और अबरार अलवी द्वारा निर्देशित, गुरुदत्त, मीना कुमारी और वहीदा रहमान के अभिनय से सजी फिल्म भारतीय सिनेमा की अमूल्य धरोहर है।
महाकवि रवीन्द्र नाथ टैगोर (Rabindranath Tagore) की अनेक रचनाओं पर फिल्मों का निर्माण हुआ है। इसमें सबसे उल्लेखनीय है “काबुली वाला”। इस कहानी पर आधारित इसी नाम की भाव प्रवण फिल्म का निर्माण निर्देशन बिमल रॉय ने किया था। अभिनेता बलराज साहनी (Balraj Sahni) ने अपने उत्कृष्ट अभिनय से इस किरदार को सदा सर्वदा के लिए अमर कर दिया।
साथ ही साथ मराठी, गुजराती, पंजाबी साहित्य एवं लोक कथाओं ने भी भारतीय फिल्मों की विषयवस्तु के रूप में पर्याप्त स्थान एवं प्रसिद्धि पाई। कुछ उल्लेखनीय मराठी फिल्में हैं, हरिनारायण आप्टे की “हृदया ची श्रीमंती” पर १९३७ में बाबूराव पेंटर ने “प्रतिमा” फिल्म का निर्माण किया। प्रसिद्ध मराठी अभिनेत्री हंसा वाडकर की जीवनी पर श्याम बेनेगल ने “भूमिका” फिल्म बनाई। चन्द्रकान्त काकोड़कर के उपन्यास “नीलाम्बर” पर राज खोसला ने “दो रास्ते” जैसे सफल चलचित्र का निर्माण किया।
गुजराती लेखक कन्हैया लाल मुंशी के उपन्यास “वैर नी वसूलात” पर १९३५ में “बैर का बदला” फिल्म का निर्माण किया गया। उन्हीं के द्वारा लिखित ऐतिहासिक उपन्यास पाटण नी प्रभुता पर “महारानी मीनल देवी” नाम की फिल्म का निर्माण हुआ। उनके उपन्यास “पृथ्वी वल्लभ” पर सोहराब मोदी ने सफल फिल्म का निर्माण किया। गोवर्धनराम त्रिपाठी के उपन्यास “सरस्वतीचन्द्र” पर गोविन्द सरैया ने इसी नाम से नूतन (Nutan) को लेकर एक अत्यन्त सफल फिल्म का निर्माण किया।
“हीर रांझा”, “सोहनी महिवाल”, “मिर्जा-साहिबा”, “सस्सी-पुन्नू” जैसी पंजाब की प्रेम कथाओं को अनेक बार प्रस्तुत किया गया है। राजेंद्र सिंह बेदी की “एक चादर मैली सी” का भी रूपहले परदे पर प्रदर्शन हुआ है। नानक सिंह द्वारा रचित उपन्यास “पवित्र पापी” पर इसी नाम से एक फिल्म राजेंद्र भाटिया ने बनाई थी। अमृता प्रीतम (Amrita Pritam) की कृति “धरती, सागर और सीपिया”, पिंजर (Pinjar) पर भी फिल्म बनाई गई है।
सिनेमा में साहित्य के योगदान पर अगर विस्तृत चर्चा की जाए तो एक ग्रन्थ लिखा जा सकता है। सच तो यह है कि आरम्भ में साहित्य और सिनेमाई कहानियों के बीच एक सन्तुलन बना हुआ था। व्यावसायिक रूप से भी ये फिल्में सफल हो रही थी। इसलिए फिल्मकारों की भी रुचि इनमें बनी हुई थी। किन्तु, आगे चलकर फिल्म निर्माण में बाजार हावी हो गया। स्टार वैल्यू हावी हो गई। एक समय था जब कहानी के पात्र के आधार पर कलाकार निर्धारित होते थे। अब कलाकार के आधार पर कहानी का ताना बाना बुना जाता है। अब साहित्यिक कृतियों पर फिल्म बनाने का जोखिम उठाने वाले फिल्मकार कम ही बचे हैं। किन्तु जैसे कि कहते भी हैं कि – सब दिन रहत न एक समाना – समय का चक्र घूम रहा है और हम फिर से उत्कृष्ठ साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनते देखेंगे।
साभार: चित्र जगत भारत बोध