स्वतंत्र भारत के 7.5 दशकों में मनोरंजन का बदलता प्रवाह

अतुल गंगवार :

आज के वर्तमान युग में यदि हम अपने चारों ओर नज़रे घुमाएं तो हर चलता फिरता व्यक्ति मनोरंजन का साधन बना दिखाई देता है। कानों में हेड फोन, हाथों में मोबाइल पकडे एक अपनी ही दुनिया में मगन वो जीवन का आनंद ले रहा है। देश में सिनेमा,रंगमंच,OTT, दूरदर्शन, Satellite channels, एफ एम रेडिओ, यू ट्यूब आदि के रूप  में मनोरंजन के अनेक साधन लोगों के पास मौजूद हैं। मनोरंजन की इस विस्तार यात्रा को अगर ठीक से समझना है तो हमें थोडा पीछे जाना होगा और १९४७ में मनोरंजन की स्थिति एवम वहां से उसके बदलते रूप को वर्तमान समय तक समझना होगा।

भारत में आजादी से पूर्व  सिनेमा और रेडियो का आगमन हो गया था। इनके आगमन से पहले आम आदमी  नाटकों,लोक कलाओं, राम लीला, रास लीला, स्वांग और नौटंकी जैसे लोक प्रचलित नाट्यरूपों से ही अपना मनोरंजन करता  था। भारत में मनोरंजन के इन साधनों का उपयोग ना केवल मनोरंजन के लिए होता था। इनका उपयोग सामाजिक ,राजनीतिक एवम धार्मिक चेतना जगाने  के लिए भी किया जाता था। १९१३ में दादा साहेब फाल्के द्वारा निर्मित “राजा  हरिश्चंद्र” फिल्म के प्रदर्शन के साथ ही भारतीय दर्शकों के लिए फिल्मों के रूप में मनोरंजन का एक नया साधन मिल गया। हालाँकि १९१३ से १९१९ तक मात्र २२ फिल्मों का ही निर्माण किया गया था। १९२० के बाद फिल्म निर्माण ने गति पकड़ी और १९२० में २७ फिल्में दर्शको को देखने के लिए मिली। १९३१ में फिल्मों को आवाज़ मिली और मनोरंजन के क्षेत्र में एक नयी क्रांति आई। इस वर्ष कुल २८ फिल्मों (हिंदी में २३, बंगाली में ४ और तमिल में १) का निर्माण हुआ। हालाँकि स्वतंत्रता आन्दोलन के महानायक महात्मा गाँधी सिनेमा को देश की जनता के लिए अच्छा नहीं मानते थे फिर भी जागरूक फिल्मकारों ने इस माध्यम का उपयोग देश की जनता को जाग्रत करने के लिए किया।

भारत में १९२७ में मुंबई और कोलकोता में निजी रेडियो की शुरुआत की गयी। १९३० में रेडियो का सरकारीकरण हो गया और इंडस्ट्री एवम लेबर डिपार्टमेंट ने इंडियन ब्रोडकास्टिंग सर्विस की शुरुआत की। इसके बाद से रेडियो अनवरत ज्ञान और मनोरंजन के साधन के रूप में विस्तार करता रहा है।

१९४७ में भारत अंग्रेजों की गुलामी से स्वतंत्र हो गया। देश का विभाजन हुआ और आम जनता ने दंगो और विस्थापन का दंश सहा। हिन्दूओं और मुसलमानों के बीच अविश्वास की गहरी खाई बन गयी। देश की जनता अवसाद डूबी हुई थी। चारों ओर निराशा का वातावरण था। ऐसे समय में फिल्मकारों  ने अपनी फिल्मों के माध्यम से ना केवल जनता को अवसाद से बाहर निकलने में मदद की। उन्हें नए भारत के निर्माण के लिए अपना योगदान देने के लिए प्रेरित किया,उन्हें राह भी दिखाई। १९४८ में मोहन भवनानी ने भारत की कोडा क्रोम १६ एम एम से ३५ एम एम  में ब्लो अप करके पहली रंगीन फिल्म “अजीत उर्फ़ रंगीन ज़माना” का निर्माण किया। इसी वर्ष राज कपूर ने आर.के.फिल्म्स की स्थापना की और ‘’का निर्माण किया। इसी वर्ष एस.एस.वासन की तमिल फिल्म “चंद्रलेखा” को सम्पूर्ण भारत में प्रदर्शित किया गया और फिल्म ने सफलता का इतिहास रच दिया।

स्वतंत्र भारत में राष्ट्रीय चेतना को जाग्रत करने के काम सिनेमा के माध्यम से प्रभावशाली तरीके से किया गया।  बंकिम चन्द्र चटर्जी द्वारा रचित “आनंदमठ” उपन्यास पर आधारित फिल्म “आनंदमठ” ने देश की जनता को राष्ट्रीयता से तो ओत प्रोत किया ही, १९५० में संविधान सभा द्वारा राष्ट्रीय गीत के रूप में स्वीकार्य “वन्देमातरम” को जन जन के बीच पहुँचाने का काम किया। सही मायने में भारतीय सिनेमा ने अपने विविधता पूर्ण विषयों पर आधारित फिल्मों के माध्यम से देश की जनता को केवल अवसाद से बाहर निकाला उसकी सोच,उसकी आकांशाओं, उसके सपनों को भी नयी उड़ान दी।

१९४८ में भारत सरकार के सूचना एवम प्रसारण मंत्रालय ने “फिल्म्स डिवीज़न” की स्थापना की। अपनी स्थापना के इन ७४ वर्षों में फिल्म्स डिवीज़न ने लगभग ६५०० से अधिक फिल्मों जिसमें वृतचित्र, लघु फिल्में एवम एनीमेशन शामिल हैं, के अतिरिक्त २६०० से अधिक समाचार फिल्मों और पत्रिकाओं का निर्माण किया है। स्वतंत्रता के बाद देश-विदेश के समाचारों को अपनी समाचार फिल्मों के माध्यम से, जिनका प्रदर्शन देश के सभी सिनेमा हाल में किया जाता था, जनता को अवगत करने के लिये  किया जाता था  एवम इतिहास के संरक्षण के क्षेत्र में “फिल्म्स डिवीज़न” ने उल्लेखनीय कार्य किया है।

१९६० में सिनेमा के क्षेत्र में प्रक्षिक्षण के उद्देश्य से पुणे में फिल्म एंड टेलीविज़न संस्थान की स्थापना की गयी। १९७४ में इसको एक स्वायत्य संस्थान के रूप में सूचना एवम प्रसारण मंत्रालय द्वारा वित्त पोषित संस्था के रूप में परिवर्तित कर दिया गया। इस संस्था को देश के कई अग्रणी निर्देशक,अभिनेता,अभिनेत्री, तकनीशियन देने का गौरव प्राप्त है। अडूर गोपालकृष्णन, कुमार शाहनी, मणि कौल, शबाना आज़मी, सुभाष घई, गोविन्द निहलानी,शत्रुघ्न सिन्हा,डेनी कुछ प्रमुख नाम हैं।

१९६० में नेशनल फिल्म डेवलेप्मेंट कारपोरेशन की स्थापना की गयी। शुरूआत में ये वित्त मंत्रालय के अधीन आता था। १९६४ में ये सूचना प्रसारण मंत्रालय के अधीन आ गया। इसका मूल उद्देश्य फिल्म उद्योग को अच्छी फिल्मों के प्रसार और निर्माण के लिए वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने में मदद करना था। अपने शुरूआती ६ बरस में इसने ५० फिल्मों के निर्माण में सहायता प्रदान की। जिसमें सत्यजीत रे की “चारुलता” (१९६४), “नायक”(१९६६),”गोपी गायने बघा बायने” (१९६८) उल्लेखनीय हैं। जैसा की मैं आपको लेख की शुरुआत में बता चुका हूँ कि हमारे देश के नेताओं की फिल्म निर्माण को लेकर सोच क्या थी। यहाँ ये भी बताना उचित होगा रूस की क्रांति के बाद लेनिन ने कहा था कि “हमारे लिए सिनेमा सभी कलाओं से अधिक महत्वपूर्ण है। सिनेमा केवल लोगों के मन बहलाव का नहीं बल्कि सामाजिक शिक्षा, संवाद स्थापित करने तथा हमारी विशाल जनसंख्या को एकसूत्र में बांधने का सशक्त साधन भी है”। वहीं दूसरी ओर 1947 में जब देश स्वाधीन हुआ तो फिल्म उद्योग के लोगों ने महात्मा गांधी को एक कार्यक्रम में आमंत्रित करना चाहा। उस समय गांधी जी के सचिव ने आयोजकों को उत्तर दिया था कि फिल्म से संबंधित किसी भी कार्यक्रम में गांधी जी को बुलाने के बारे में सोचिए भी नहीं क्योंकि फिल्मों को लेकर बापू की राय अच्छी नहीं है। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी फिल्मों को पाप फ़ैलाने का माध्यम मानते थे।  देश के नेताओं की इसी मनोवृति का लाभ वामपंथी विचारधारा के लोगों उठाया और देश में सिनेमा के क्षेत्र उपलब्ध संसाधनों का उपयोग अपनी विचारधारा को प्रचारित,प्रसारित करने और भारत की छवि को अंतराष्ट्रीय पटल पर अपने लाभ के अनुरूप बनाने का कार्य किया।  प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के प्रभाव से फिल्म फाइनेंस कारपोरेशन द्वारा ‘नए भारतीय सिनेमा’ की स्थापना के लिए मृणाल सेन की ‘भुवन शोम’ और मणि कौल की ‘उसकी रोटी’(१९६९) का निर्माण किया गया। समान्तर सिनेमा, नया सिनेमा के नाम पर संसाधनों की बन्दर बाँट किस तरह से एक विचार विशेष को समृद्ध करने के लिए की गयी इसपर एक विशेष लेख लिखा जा सकता है।

१९५९ में यूनेस्को और फिलिप्स के सहयोग से भारत में परिक्षण के तौर पर साप्ताहिक आधे घंटे का प्रसारण दिल्ली के ४० किलोमीटर के दायरे में शुरू हुआ था। १९६५ में तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री इंदिरा गाँधी ने इस आधे घंटे के साप्ताहिक प्रसारण को दैनिक में बदल दिया। १९७२ में मुंबई, १९७३ में कश्मीर उसके बाद कोलकोता,मद्रास(चेन्नई), में प्रसारण केंद्र बनाये गए। १९८२ में एशियाई खेलों के दौरान देश में रंगीन प्रसारण की शुरुआत हुई। १९७६ में AIR इसको अलग करके एक स्वतंत्र कारपोरेशन बना दिया गया और इसको ‘दूरदर्शन’ का नाम दिया गया। दूरदर्शन settelite क्रांति से पहले देश का सबसे बड़ा प्रसारक था। “हम लोग” देश का पहला धारावाहिक था। इसके बाद “रामायण”,”महाभारत” जैसे लोकप्रिय धारावाहिकों ने दूरदर्शन को घर घर में पहुंचा दिया। कुछेक अपवादो को छोड़ दिया जाये तो दूरदर्शन का उपयोग भी विचारधारा को समृद्ध करने के लिए किया गया। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता लंबे समय तक देश की जनता को मनोरंजन एवम ज्ञान प्रदान करने का काम दूरदर्शन ने किया है।

१९९० के दशक में देश में settelite चैनल के आगमन के साथ देश में मनोरंजन के मायने बदल गए। १९९२ में पांच प्राइवेट चैनलों की शुरुआत ने देश के मनोरंजन की दिशा बदल दी। एक तरह से कहा जाये वैश्विक खुलेपन का अहसास देश की जनता को मनोरंजन के क्षेत्र में देखने को मिला। इन चैनलों के माध्यम से एक ओर युवाओं के लिए जहाँ नए रोज़गार के अवसर बने, वहीं दूसरी ओर कई नए विषयों पर आधारित धारावाहिकों ने लोगों को मनोरंजन प्रदान किया। नयी तरह की कहानियाँ दर्शकों के सामने नए अंदाज़ में परोसी गयीं। मनोरंजन एवम ख़बरों की दुनिया एकदम से बदल गयी। दूरदर्शन से ऊबे हुए दर्शकों ने इस परिवर्तन को हाथों हाथ लिया और देखते ही देखते दूरदर्शन का एकाधिकार समाप्त हो गया।

१९८० के दशक में मनोरंजन के क्षेत्र में  VCR ने एक नयी क्रांति का आगाज़ किया। घर घर मनोरंजन विडियो कैसेट के द्वारा पहुँच गया। एक समय तो ऐसा आया की लगा भारतीय फिल्म उद्योग को भारी नुक्सान हो जायेगा।लेकिन जल्द ही बड़े परदे की भव्यता ने छोटे परदे के आकर्षण को समाप्त कर दिया और दर्शक उसके पास वापिस लौट आये।

इन्टरनेट क्रांति ने संपूर्ण विश्व को करीब ला दिया। इसका असर भारत पर भी देखने को मिला और यहाँ के लोगों ने भी अपनी सशक्त उपस्तिथि यू ट्यूब और सोशल मीडिया दर्ज करायी है। कोरोना काल में भारतीय दर्शकों ने मनोरंजन के एक नए माध्यम OTT से परिचय किया। हालाँकि OTT प्लेटफॉर्म्स अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर जिस तरह का कंटेंट दर्शको के सामने परोस रहे हैं वह विवाद का विषय है। एक ख़ास विचारधारा के लोग जो भारतीयता, भारतीय परिवार,कला,लोक संस्कृति, समाज आदि को अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर ख़तम करने का प्रयास कर रहें हैं, वह इस कार्य में आरंभ में सफल होते दिखाई दिए लेकिन जल्द ही उनके खतरनाक मंसूबे देश के लोगों के सामने आ गए और उन्हें उनके दुष्प्रचार का उत्तर मिलना प्रारंभ हो गया।

आज अपनी स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा भारत ज्ञान और मनोरंजन के संसाधनों की ताकत से परिचित है। देर से ही सही आज भारत के नेतृत्व कर्ताओं ने सिनेमा,नाटक, लोक कलाओं, भारतीय संगीत आदि को देश को जोड़ने में सहायक माना है। एक वक़्त था जब १९४८ में एक तमिल फिल्म “चंद्रलेखा” ने पूरे देश में उपस्तिथि दर्ज करायी थी, राजेश खन्ना की फिल्म “आराधना” अहिंदी भाषी क्षेत्र मद्रास (चेन्नई) में १०० हफ्ते चलने वाली पहली फिल्म बनी थी। आज दक्षिण भाषा क्षेत्र की फिल्में हिंदी भाषी क्षेत्रों में अच्छा व्यवसाय कर रहीं हैं। मनोरंजन के माध्यम से ही सही आज देश एकता के सूत्र में बंधा दिखाई दे रहा है। कश्मीर समस्या को सबके सामने लानी वाली फिल्म “द कश्मीर फाइल्स” की सफलता ने संपूर्ण देश के सामने एक ऐसे सच को उजागर किया है जिसे देश की जनता से छुपाया गया था। इसी श्रृंखला में केरला स्टोरी, द वैक्सीन वॉर की सफलता ने समाज और देश के विरुद्ध चल रहे षडयंत्रों को उजागर करने का काम किया है।

आज देश के जनमानस ने ऐसे नेरेटिव को मुंह तोड़ जवाब देना शुरू किया है जो देश की एकता अखंडता को तोड़ने की बात करता है। अब अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर कुछ भी परोसने वालों की भी भाषा और संस्कार बदल गए है। काश लेनिन के विचार को हमारे नेताओं ने पहले समझा होता तो आज देश के मनोरंजन जगत की हालत कुछ ओर ही होती। लेकिन देर आयद दुरुस्त आयद आज देश की आजादी के इस अमृत महोत्सव के अवसर पर देश के मनोरंजन का प्रवाह देश को जोड़ने की ओर अग्रसर है। यह एक नए भारत के निर्माण के लिए सुखद है।