बहुत सोच समझ कर हो चलचित्रों मे विषय चयन

डॉ उदय भान सिंह

चलचित्र के अंतर्गत हम सामान्यतः उन सभी मनोरंजन,सूचना देने वाले,विज्ञापन,धारावाहिकों, सिनेमा/फिल्में या जो भी चलते फिरते चित्र,कार्टून इत्यादि विषय वस्तु है, सभी को शामिल कर सकते हैं । इसी कडी मे सिनेमा जनसंचार मनोरंजन का एक लोकप्रिय माध्यम है। जिस तरह साहित्य समाज का दर्पण होता है, उसी तरह सिनेमा भी समाज को प्रतिबिम्बित करता है। भारतीय युवाओं में सिनेमा के कलाकारों के पहनावे के अनुरूप फैशन का प्रचलन हो, या अन्य प्रभाव हों,सभी प्रकार का प्रभाव युवाओं और समाज पर प्रत्यक्ष रूप मे पडता है। सिनेमा अर्थात् चलचित्र का आविष्कार उन्नीसवीं शताब्दी के उतरार्द्ध में हुआ था । चित्रों को संयोजित कर उन्हें दिखाने को ही चलचित्र कहते हैं । इसके लिए प्रयास तो 1870 ई. के आस-पास ही शुरू हो गए थे, किन्तु इस स्वप्न को साकार करने में विश्वविख्यात वैज्ञानिक एडीसन एवं फ्रांस के ल्यूमिर बन्धुओं का योगदान प्रमुख था।

ल्यूमिर बन्धुओं ने 1895 ई. में एडीसन के सिनेमैटोग्राफ्री पर आधारित एक यन्त्र की सहायता से चित्रों को चलते हुए प्रदर्शित करने में सफलता पाई और इस तरह सिनेमा का आविष्कार हुआ । अपने आविष्कार के बाद लगभग तीन दशकों तक सिनेमा मूक बना रहा । वर्ष 1927 में वार्नर ब्रदर्स ने आंशिक रूप से सवाक् फिल्म ‘जाज सिंगर’ बनाने में सफलता पाई । इसके बाद वर्ष 1928 में पहली पूर्ण सवाक् फिल्म ‘लाइट्स ऑफ न्यूयॉर्क’ का निर्माण हुआ । सिनेमा के आविष्कार के बाद से इसमें कई परिवर्तन होते रहे और इसमें नवीन तकनीकों का प्रयोग होता रहा । अब फिल्म निर्माण तकनीक अत्यधिक विकसित हो चुकी है, इसलिए आधुनिक समय में निर्मित सिनेमा के दृश्य एवं ध्वनि बिल्कुल स्पष्ट होते हैं ।

सिनेमा की शुरूआत से ही इसका समाज के साथ गहरा सम्बनध रहा है । प्रारम्भ में इसका उद्देश्य मात्र लोगों का मनोरंजन करना भर था । अभी भी अधिकतर फिल्में इसी उद्देश्य को लेकर बनाई जाती हैं, इसके बावजूद सिनेमा का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है ।

कुछ लोगों का मानना है कि सिनेमा समाज के लिए अहितकर है एवं इसके कारण अपसंस्कृति को बढ़ावा मिलता है । समाज में फिल्मों के प्रभाव से फैली अश्लीलता एवं फैशन के नाम पर अभद्रता को इसके उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, किन्तु सिनेमा के बारे में यह कहना कि यह केवल बुराई फैलाता है, सिनेमा के साथ अन्याय करने के तुल्य होगा । आवश्यकता केवल इस बात की है जब भी चलचित्र बनाएं जाएँ तो उनका विषय चयन बहुत ही सोच समझ कर किया जाना चाहिए । साथ ही विषय करते समय नितांत संवेदनशीलताका ध्यान रखना समय की आवश्यकता है । कई बार देखा जाता है कि विषय का चयन जल्दबाजी मे करने के कारण बाद मे अनेक समस्याओं का सामना तो करना ही पडता है उसका समाज मे भी बहुत ज्यादा दुष्परिणाम देखने को मिलता है। कई बार कहा जाता है कि सिनेमा का प्रभाव समाज पर कैसा पड़ता है, यह समाज की मानसिकता पर निर्भर करता है। वास्तव मे सिनेमा में प्रायः अच्छे एवं बुरे दोनों पहलुओं को दर्शाया जाता है। मगर फिल्म निर्माता व निदेशक को इस बात का विशेष ध्यान रखना ही चाहिए कि विषय क्या है? तथा इसका क्या प्रभाव समाज पर पडेगा? वही दूसरी तरफ बहुत हद तक यह भी सही है जैसा कि स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था- ”संसार की प्रत्येक चीज अच्छी है, पवित्र है और सुन्दर है यदि आपको कुछ बुरा दिखाई देता है, तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह चीज बुरी है। इसका अर्थ यह है कि आपने उसे सही रोशनी में नहीं देखा ।” द्वितीय विश्वयुद्ध के समय ऐसी फिल्मों का निर्माण हुआ, जो युद्ध की त्रासदी को प्रदर्शित करने में सक्षम थीं; ऐसी फिल्मों से समाज को सार्थक सन्देश मिलता है ।

सामाजिक बुराइयों को दूर करने में सिनेमा एवं टी वी के धारावाहिक सक्षम है। दहेज प्रथा और इस जैसी अन्य सामाजिक समस्याओं का फिल्मों में चित्रण कर कई बार परम्परागत बुराइयों का विरोध किया गया है।

समसामयिक विषयों को लेकर भी सिनेमा निर्माण सामान्यतया होता रहा है। भारत की पहली फिल्म ‘’ थी। दादा साहब फाल्के द्वारा यह मूक वर्ष 1913 में बनाई गई थी। प्रारम्भिक दौर में भारत में पौराणिक एवं ऐतिहासिक फिल्मों का बोल-बाला रहा, किन्तु समय बीतने के साथ-साथ सामाजिक, राजनीतिक एवं साहित्यिक फिल्मों का भी बडी संख्या में निर्माण किया जाने लगा। छत्रपति शिवाजी, , मुगले आजम, मदर इण्डिया आदि फिल्मों ने समाज पर अपना गहरा प्रभाव डाला।

उन्नीसवीं सदी के साठ-सत्तर एवं उसके बाद के कुछ दशकों में अनेक ऐसे भारतीय फिल्मकार हुए, जिन्होंने कई सार्थक एवं समाजोपयोगी फिल्मों का निर्माण किया। सत्यजीत राय (पाथेर पाँचाली, चारुलता, शतरंज के खिलाड़ी), वी. शान्ताराम (डॉ कोटनिस की अमर कहानी, दो आँखें बारह हाथ, शकुन्तला), ऋत्विक घटक मेधा ढाके तारा), मृणाल सेन (ओकी उरी कथा), अडूर गोपाल कृष्णन (स्वयंवरम्), श्याम बेनेगल (अंकुर, निशान्त, सूरज का सातवाँ घोड़ा), बासु भट्‌टाचार्य (तीसरी कसम) गुरुदत (, कागज के फूल, साहब, बीवी और गुलाम), विमल राय (दो बीघा जमीन, बन्दिनी, मधुमती) भारत के कुछ ऐसे ही प्रसिद्ध फिल्मकार है। चूँकि सिनेमा के निर्माण में निर्माता को अत्यधिक धन निवेश करना पड़ता है, इसलिए वह लाभ अर्जित करने के उद्देश्य से कुछ ऐसी बातों को भी सिनेमा में जगह देना शुरू करता है, जो भले ही समाज का स्वच्छ मनोरंजन न करती हो, पर जिन्हें देखने बाले लोगों की संख्या अधिक हो। ऐसे प्रयासों या प्रयोग अक्सर समाज पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है। निर्माता और निर्देशकों को ऐसी स्थितियों से हर हाल मे बचना ही चाहिए। कुछ ऐसे निर्माता भी हैं, जिन्होंने समाज के खास वर्ग को ध्यान में रखकर सिनेमा का निर्माण किया, जिससे न केवल सिनेमा का, बल्कि समाज का भी भला हुआ ।ऐसे ही महान फिल्म निदेशक सत्यजीत रे हुए हैं । उनका कहना है कि “फिल्म वही सार्थक है जो समाज का प्रतिबिम्ब हो “।

पिछले कुछ दशकों से भारतीय समाज में राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक भ्रष्टाचार में वृद्धि हुई है, इसका असर इस दौरान निर्मित फिल्मों पर भी दिखाई पड़ा है। फिल्मों में आजकल सेक्स और हिंसा को कहानी का आधार बनाया जाने लगा है । तकनीकी दृष्टिकोण से देखा जाए, तो हिंसा एवं सेक्स को अन्य रूप में भी कहानी का हिस्सा बनाया जा सकता हो किन्तु युवा वर्ग को आकर्षित कर धन कमाने के उद्देश्य से जान-अकर सिनेमा में इस प्रकार के चित्रांकन पर जोर दिया जाता है । इसका कुप्रभाव समाज पर भी पड़ता है । दुर्बल चरित्र वाले लोग फिल्मों में दिखाए जाने वाले अश्लील एवं हिंसात्मक दृश्यों को देखकर व्यावहारिक दुनिया में भी ऊल-जलूल हरकत करने लगते है । इस प्रकार, नकारात्मक फिल्मों से समाज में अपराध का ग्राफ बढा है,इसलिए फिल्म निर्माता, निर्देशक एवं लेखक को हमेशा इसका ध्यान रखना चाहिए कि उनकी फिल्म में किसी भी रूप में समाज को नुकसान न पहुँचाने पाएँ, उन्हें यह भी समझना होगा कि फिल्मों में अपराध एवं हिंसा को कहानी का विषय बनाने का उद्देश्य उन दुर्गुणों की समाप्ति होती है न कि उनको बढावा देना ।

इस सन्दर्भ में फिल्म निर्देशक का दायित्व सबसे अहम् होता है, क्योंकि वह फिल्म के उद्देश्य और समाज पर पड़ने वाले उसके प्रभाव को भली-भांति जानता है । सत्यजीत राय का भी मानना है कि फिल्म की सबसे सूक्ष्म और गहरी अनुभूति केवल निर्देशक ही कर सकता है । आज हमारे निर्देशकों, अभिनय करने बाले कलाकारों आदि को न सिर्फ हॉलीबुड से बुलावा आ रहा है, बल्कि धीरे-धीर वे विश्व स्तर पर स्वापित भी होने लगे है । आज आम भारतीयों द्वारा फिल्मों से जुड़े लोगों को काफी महत्व दिया जाता है । अमिताभ बच्चन और ऐश्वर्या राय द्वारा पोलियो मुक्ति अभियान के अन्तर्गत कहे गए शब्दों ‘दो बूंद जिन्दगी के’ का समाज पर स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है ।

लता मंगेशकर, आशा भोंसले, मोहम्मद रफ़ी, मुकेश आदि फिल्म से जुड़े गायक-गायिकाओं के गाए गीत लोगों की जुबान पर सहज ही आ जाते हैं । स्वतन्त्रता दिबस हो, गणतन्त्र दिवस हो या फिर रक्षा बन्धन जैसे अन्य त्योहार, इन अवसरों पर भारतीय फिल्मों के गीत का बजना या गाया जाना हमारी संस्कृति का अंग बन चुका है । आज देश की सभी राजनीतिक पार्टियों में फिल्मी हस्तियों को अपनी ओर आकर्षित करने की होड़ लगी है । आज देश के बुद्धिजीवी वर्गों द्वारा ‘नो वन किल्ड जेसिका’, ‘नॉक आउट’, ‘पीपली लाइव’, ‘’ जैसी फिल्में सराही जा रही है । ‘नो वन किल्ड जेसिका’ में मीडिया के प्रभाव, कानून के अन्धेपन एवं जनता की शक्ति को चित्रित किया गया, तो ‘नॉक आउट’ में विदेशों में जमा भारतीय धन का कच्चा चिल्ला खोला गया और ‘पीपली लाइव’ ने पिछले कुछ वर्षों में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बढी ‘पीत पत्रकारिता’ को जीवन्त कर दिखाया।

ऐसी फिल्मों का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है एवं लोग सिनेमा से शिक्षा ग्रहण कर समाज सुधार के लिए कटिबद्ध होते हैं । इस प्रकार, आज भारत में बनाई जाने वाली स्वस्थ व साफ-सुथरी फिल्में सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों को पुनर्स्थापित करने की दिशा में भी कारगर सिद्ध हो रही है । ऐसे में भारतीय फिल्म निर्माताओं द्वारा निर्मित की जा रही फिल्मों से देशवासियों की उम्मीदें काफी बढ़ गई हैं, जो भारतीय फिल्म उद्योग के लिए तो लाभदायक होगा ही,समाज को को रचनात्मक और सकारात्मक लाभ मिल सकेगा ।यही अच्छे विषय पर आधारित फिल्म,धारावाहिकों या ओटीटी चलचित्रों का हेतुक होना चाहिए ।

भारतीय सिनेमा के सौ वर्षों के इतिहास में हिंदी फिल्मों ने भारत की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक सरोकारों को विश्व के सम्मुख प्रस्तुत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हिंदी फिल्मों में मनोरंजन के साथ साथ भारतीय जीवन के विविध पहलुओं को बदलते परिवेश में चित्रित करने में सफलता हासिल की है। हिंदी फिल्मों की सबसे बड़ी विशेषता जीवन में व्याप्त हर तरह की संवेदना को दर्शाना रहा है। भारत में सिनेमा के उदय काल से ही इस माध्यम का प्रयोग फिल्म फ़िल्मकारों ने देश में राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना जगाने के लिए किया। हिंदी फिल्में (भारतीय फिल्में) मूलत: संगीत प्रधान रहीं हैं। गीत और संगीत के बिना हिंदी फिल्मों की कल्पना नहीं की जा सकती। हिंदी फिल्मों को सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक धरातल पर पृथक कर उनमें व्याप्त विभिन्न सरोकारों को विश्लेषित किया जा सकता है। आज़ादी से पहले की फिल्मों के मुख्य विषय स्वतन्त्रता संग्राम, अंग्रेजी राज से मुक्ति के प्रयास और देशभक्त वीरों के बलिदान की कथाओं पर आधारित रहे। हिंदी फिल्मों का प्रथम दौर ऐतिहासिक और धार्मिक फिल्मों का था इस दौर में निर्माता निर्देशक और अभिनेता सोहराब मोदी ने सिकंदर, पुकार, झांसी की रानी जैसी महान ऐतिहासिक फिल्में बनाईं। इन फिल्मों ने लोगों में देश प्रेम की भावना को उद्दीप्त करने का माहौल बनाया। भारतीय नवजागरण आन्दोलन से प्रेरित और प्रभावित होकर फ़िल्मकारों की दृष्टि भारतीय समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों और कुप्रथाओं की ओर गई। परिणामस्वरूप सुधारवादी फिल्मों का आविर्भाव आज़ादी से पहले हुआ। साहित्य की ही तरह सिनेमा भी समाज का दर्पण है। समाज की सच्ची तस्वीर सिनेमा में दिखाई देती है। फ़िल्मकारों ने इस सशक्त माध्यम के द्वारा एक कारगर परिवर्तन और सुधार को समाज में प्रचारित करने के लिए महत्त्वपूर्ण फिल्में बनाई जिनकी प्रासंगिकता आज भी अक्षुण्ण है।सिनेमा का जन्म सिर्फ मनोरंजन परोसकर पैसे कमाने के लिए नहीं हुआ है। सदा से सिनेमा के मज़बूत कन्धों पर देश-काल और सामाजिक दायित्व का दोहरा बोझ भी हुआ करता है। अपने प्रारम्भिक काल से ही सिनेमा अपने मनमोहक लुभावने अंदाज के साथ-साथ अपनी सरल और प्रभावशाली संप्रेषणीयता के कारण लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद और सामाजिक कुरीतियों के विरोध में सिनेमा का, साहित्य और नाटक की तरह सामाजिक परिवर्तन के ध्येय से एक तेज़ दो-धारी तलवार की तरह इस्तेमाल किया गया है।

यही कारण है कि पचास का दशक हिंदी फिल्मों का स्वर्ण युग कहा जाता है। इसका सबसे बड़ा कारण है – फिल्मों और फ़िल्मकारों की सामाजिक प्रतिबद्धता। सामाजिक समस्याओं के प्रति एक ईमानदार संवेदनशीलता और उन समस्याओं का समाधान तलाशने की एक ललक जिसे वे दर्शकों में जागरूकता पैदा कर हासिल करना चाहते थे। उन दिनों फिल्म निर्माण का एक मात्र उद्देश्य व्यावसायिकता नहीं हुआ करता था। सामाजिक सरोकारों से जुड़े सशक्त कथानक, संदर्भानुकूल गीत, कर्णप्रिय मधुर संगीत और एक संदेशात्मक सुखद अंत के साथ फिल्में लोगों को आकर्षित करती थीं।

निर्माताओं की दृष्टि केवल आर्थिक लाभ पर ही न होकर समाज के लिए स्वस्थ मनोरंजन जुटाने की ओर भी हुआ करती थी। व्यावसायिकता और विनोदात्मकता के संग-संग संदेशात्मकता और रूढ़ियों से मुक्ति की आकांक्षा भी फ़िल्मकारों की सोच का हिस्सा हुआ करती थी। ऐसे फ़िल्मकारों में सोहराब मोदी, पृथ्वीराज कपूर, वी शांताराम, कमाल अमरोही, गुरुदत्त, विमलराय, महबूब खान, नितिन बोस, ताराचंद बड़जात्या, बी आर चोपड़ा, चेतन आनंद, देव आनंद, विजय आनंद, मनोज कुमार आते हैं।

आज ओटीटी और टेलीविजन मे चल रहे कुछ फिल्में और धारावाहिक पूरी तरह से मानवीय समाज,भारतीय संस्कृति और परंपरा के विरुद्ध हैं ।जिनपर समय रहते कानूनी नियमन आवाश्यक हैं क्योंकि इनका समाज व परिवार पर बहुत ही नकारात्मक दुष्परिणाम देखने को मिल रहा है ।कुल मिलाकर सिनेमा हों,धारावाहिक हों या मीडिया का कोई भी काॅन्टेन्ट क्यो न हों,उनका विषय चयन प्रासंगिक,मर्यादित,सकारात्मक संदर्भ मे ही हो तभी उनकी सार्थकता है ।